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अगस्त 1857 को गोरखपुर में अली नगर चौराहा पर अंग्रेज अधिकारी एक व्यक्ति
को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका कर मृत्युदण्ड की सजा दे रहे थे। लेकिन
छः बार फांसी के फंदे पर झुलाने के बाद भी उस व्यक्ति की मृत्यु तो क्या,
उसकी सांसों पर तनिक भी असर नहीं पड़ा। छः बार प्रयास करने के बाद भी फांसी
की कार्यवाही में सफलता नहीं मिलने व दोषी पर फांसी के फंदे का कोई असर
नहीं होने पर अंग्रेज अधिकारी जहाँ हतप्रद थे, वहीं स्थानीय जनता, जो वहां
दर्शक के रूप में उपस्थित थी, समझ रही थी कि फांसी के फंदे पर झुलाया जाने
वाला व्यक्ति देवी का भक्त है और जब तक देवी माँ नहीं चाहती, इसकी मृत्यु
नहीं होगी और अंग्रेज फांसी की कार्यवाही में सफल नहीं हो सकेंगे।
आखिर फांसी के तख्त पर खड़े व्यक्ति ने आँखे बंद की और वह कुछ प्रार्थना करते नजर आया। जैसे ईश्वर या देवी माँ से आखिरी बार कोई प्रार्थना कर रहो हो। उसकी प्रार्थना के बाद अंग्रेज अधिकारीयों ने सातवीं बार उसे फांसी के फंदे पर लटकाया और उस व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ गए। स्थानीय लोगों का मानना है कि बंधू सिंह ने आखिर खुद देवी माँ से प्रार्थना कर उसके प्राण हरने का अनुरोध किया, तब सातवीं बार फंदे पर लटकाने के बाद उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु का दृश्य देख दर्शक के रूप में खड़ी भीड़ के चेहरों पर अचानक दुःख व मायूसी छा गई। भीड़ में छाई मायूसी और भीड़ के हर व्यक्ति के चेहरे पर दुःख और क्रोध के मिश्रित भाव देखकर लग रहा था, कि फांसी पर झूल रहा व्यक्ति उस भीड़ के लिए कोई आम व्यक्ति नहीं, खास व्यक्ति था।
जी हाँ ! वह खास व्यक्ति थे देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध करने वाले, इस देश के महान स्वतंत्रता सेनानी, डूमरी रियासत के जागीरदार ठाकुर बाबू बंधू सिंह। बाबू बंधू सिंह (Babu Bandhu Singh) तरकुलहा देवी के भक्त थे, वे जंगल में रहकर देवी की उपासना किया करते थे।
तरकुलहा देवी का मंदिर गोरखपुर से 20 किलो मीटर दूर तथा चौरी-चौरा से 5 किलो मीटर दूर स्थित है। इस इलाके में कभी घना जंगल हुआ करता था। जंगल से होकर गुर्रा नदी गुजरती थी। इसी जंगल में डूमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह रहा करते थे। नदी के तट पर तरकुल (ताड़) के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर वह अपनी इष्ट देवी की उपासना किया करते थे। आज भी तरकुलहा देवी का यह मंदिर (Tarkulha Devi Temple) हिन्दू भक्तो की धार्मिक आस्था का प्रमुख स्थल हैं।
बाबू बंधू सिंह अंग्रेजी अत्याचारों व अंग्रेजों द्वारा देश को गुलाम बनाकर यहाँ की धन-सम्पदा को लूटने, भारतीय संस्कृति तहस-नहस करने की कहानियां बचपन से ही सुनते आ रहे थे। सो उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ बचपन से ही रोष भरा था। जब वे जंगल में देवी माँ की उपासना करते थे, तब जंगल के रास्तों से उन्होंने कई अंग्रेज सैनिकों को आते जाते देखा। वे मानते थे कि यह धरती उनकी माँ है और उधर से आते जाते अंग्रेज उन्हें ऐसे लगते जैसे वे उनके माँ के सीने को रोंदते हुए गुजर रहे है। इस सोच के चलते उनके मन में उबल रहा रोष क्रोधाग्नि में बदल गया और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध पद्दति, जिसमें वे माहिर थे, से युद्ध का श्री गणेश कर दिया। बाबू बंधू सिंह उधर से गुजरने वाले अंग्रेज सैनिकों पर छिप कर हमला करते व उनके सिर काट कर देवी माँ के मंदिर में बलि चढ़ा देते।
आखिर फांसी के तख्त पर खड़े व्यक्ति ने आँखे बंद की और वह कुछ प्रार्थना करते नजर आया। जैसे ईश्वर या देवी माँ से आखिरी बार कोई प्रार्थना कर रहो हो। उसकी प्रार्थना के बाद अंग्रेज अधिकारीयों ने सातवीं बार उसे फांसी के फंदे पर लटकाया और उस व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ गए। स्थानीय लोगों का मानना है कि बंधू सिंह ने आखिर खुद देवी माँ से प्रार्थना कर उसके प्राण हरने का अनुरोध किया, तब सातवीं बार फंदे पर लटकाने के बाद उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु का दृश्य देख दर्शक के रूप में खड़ी भीड़ के चेहरों पर अचानक दुःख व मायूसी छा गई। भीड़ में छाई मायूसी और भीड़ के हर व्यक्ति के चेहरे पर दुःख और क्रोध के मिश्रित भाव देखकर लग रहा था, कि फांसी पर झूल रहा व्यक्ति उस भीड़ के लिए कोई आम व्यक्ति नहीं, खास व्यक्ति था।
जी हाँ ! वह खास व्यक्ति थे देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध करने वाले, इस देश के महान स्वतंत्रता सेनानी, डूमरी रियासत के जागीरदार ठाकुर बाबू बंधू सिंह। बाबू बंधू सिंह (Babu Bandhu Singh) तरकुलहा देवी के भक्त थे, वे जंगल में रहकर देवी की उपासना किया करते थे।
तरकुलहा देवी का मंदिर गोरखपुर से 20 किलो मीटर दूर तथा चौरी-चौरा से 5 किलो मीटर दूर स्थित है। इस इलाके में कभी घना जंगल हुआ करता था। जंगल से होकर गुर्रा नदी गुजरती थी। इसी जंगल में डूमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह रहा करते थे। नदी के तट पर तरकुल (ताड़) के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर वह अपनी इष्ट देवी की उपासना किया करते थे। आज भी तरकुलहा देवी का यह मंदिर (Tarkulha Devi Temple) हिन्दू भक्तो की धार्मिक आस्था का प्रमुख स्थल हैं।
बाबू बंधू सिंह अंग्रेजी अत्याचारों व अंग्रेजों द्वारा देश को गुलाम बनाकर यहाँ की धन-सम्पदा को लूटने, भारतीय संस्कृति तहस-नहस करने की कहानियां बचपन से ही सुनते आ रहे थे। सो उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ बचपन से ही रोष भरा था। जब वे जंगल में देवी माँ की उपासना करते थे, तब जंगल के रास्तों से उन्होंने कई अंग्रेज सैनिकों को आते जाते देखा। वे मानते थे कि यह धरती उनकी माँ है और उधर से आते जाते अंग्रेज उन्हें ऐसे लगते जैसे वे उनके माँ के सीने को रोंदते हुए गुजर रहे है। इस सोच के चलते उनके मन में उबल रहा रोष क्रोधाग्नि में बदल गया और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध पद्दति, जिसमें वे माहिर थे, से युद्ध का श्री गणेश कर दिया। बाबू बंधू सिंह उधर से गुजरने वाले अंग्रेज सैनिकों पर छिप कर हमला करते व उनके सिर काट कर देवी माँ के मंदिर में बलि चढ़ा देते।
उस जंगल से आने जाने वाला कोई भी अंग्रेज सिपाही, जब अपने गंतव्य तक नहीं
पहुंचा, तब अंग्रेज अधिकारीयों ने जंगल में अपने गुम हुये सिपाहियों की खोज
शुरू की। अंग्रेजों द्वारा जंगल के चप्पे चप्पे की जाँच की गई तब उन्हें
पता चला कि उनके सैनिक बाबू बंधू सिंह के शिकार बन रहे है। तब अंग्रेजों ने
जंगल में उन्हें खोजना शुरू किया, लेकिन तब भी बंधू सिंह उन पर हमले कर
आसानी से उनके हाथ से निकल जाते। आखिर मुखबिर की गुप्त सूचना के आधार पर एक
दिन बाबू बंधू सिंह अंग्रेजी जाल में फंस गए और उन्हें कैद कर फांसी की
सजा सुनाई गई।
बाबू बंधू सिंह का जन्म डूमरी रियासत के जागीरदार बाबू शिव प्रसाद सिंह के
घर 1 मई 1833 को हुआ था। उनके दल हम्मन सिंह, तेज सिंह, फतेह सिंह, जनक
सिंह और करिया सिंह नाम के पांच भाई थे। अंग्रेज सैनिकों के सिर काटकर देवी
मंदिर में बलि चढाने के जूर्म में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर 12
अगस्त 1857 को गोरखपुर में अली नगर चौराहा पर सार्वजनिक रूप फांसी पर लटका
दिया था।
बाबू बंधू सिंह द्वारा फांसी के फंदे पर झूलते हुए देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के बाद स्थानीय जनता ने उनके द्वारा अंग्रेज सैनिकों की बलि देने की परम्परा को प्रतीकात्मक रूप से कायम रखने के लिए आज भी देवी मंदिर में बकरे की बलि देकर जीवित रखा है। बलि के दिन मंदिर प्रांगण में विशाल मेले का आयोजन होता है। तथा बलि दिए बकरे के मांस को मिट्टी के बरतनों में पका कर प्रसाद के रूप में बांटा जाता हैं साथ में बाटी भी दी जाती हैं।
बाबू बंधू सिंह के बलिदान स्थल पर उनकी याद को चिरस्थाई बनाने के लिए कृतज्ञ राष्ट्रवासियों ने एक स्मारक का निर्माण किया है। जहाँ देश की आजादी, अस्मितता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले इस वीर को उनकी जयंती व बलिदान दिवस पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाला ताँता लगता है।
बाबू बंधू सिंह द्वारा फांसी के फंदे पर झूलते हुए देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के बाद स्थानीय जनता ने उनके द्वारा अंग्रेज सैनिकों की बलि देने की परम्परा को प्रतीकात्मक रूप से कायम रखने के लिए आज भी देवी मंदिर में बकरे की बलि देकर जीवित रखा है। बलि के दिन मंदिर प्रांगण में विशाल मेले का आयोजन होता है। तथा बलि दिए बकरे के मांस को मिट्टी के बरतनों में पका कर प्रसाद के रूप में बांटा जाता हैं साथ में बाटी भी दी जाती हैं।
बाबू बंधू सिंह के बलिदान स्थल पर उनकी याद को चिरस्थाई बनाने के लिए कृतज्ञ राष्ट्रवासियों ने एक स्मारक का निर्माण किया है। जहाँ देश की आजादी, अस्मितता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले इस वीर को उनकी जयंती व बलिदान दिवस पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाला ताँता लगता है।
SOURCE - GYAN DARPAN
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