Thursday, 17 November 2016

जहाँ मन्नत मांगी जाती है मोटरसाईकिल से !

विविधताओं से भरे हमारे देश में देवताओं, इंसानों, पशुओं, पक्षियों व पेड़ों की पूजा अर्चना तो आम बात है लेकिन हम यहाँ एक ऐसे स्थान की चर्चा करने जा रहा है जहाँ इन्सान की मौत के बाद उसकी पूजा के साथ ही साथ उसकी बुलेट मोटर साईकिल की भी पूजा होती है और बाकायदा लोग उस मोटर साईकिल से भी मन्नत मांगते है|

जी हाँ ! इस चमत्कारी मोटर साईकिल ने आज से लगभग २१ साल पहले सिर्फ स्थानीय लोगों को ही नहीं बल्कि सम्बंधित पुलिस थाने के पुलिस वालों को भी चमत्कार दिखा आश्चर्यचकित कर दिया था और यही कारण है कि आज भी इस थाने में नई नियुक्ति पर आने वाला हर पुलिस कर्मी ड्यूटी ज्वाइन करने से पहले यहाँ मत्था टेकने जरुर आता है |

जोधपुर अहमदाबाद राष्ट्रिय राजमार्ग पर जोधपुर से पाली जाते वक्त पाली से लगभग 20 km पहले रोहिट थाने का " दुर्घटना संभावित" क्षेत्र का बोर्ड लगा दिखता है और उससे कुछ दूर जाते ही सड़क के किनारे जंगल में लगभग 30 से 40 प्रसाद व पूजा अर्चना के सामान से सजी दुकाने दिखाई देती है और साथ ही नजर आता है भीड़ से घिरा एक चबूतरा जिस पर एक बड़ी सी फोटो लगी,और हर वक्त जलती ज्योत | और चबूतरे के पास ही नजर आती है एक फूल मालाओं से लदी बुलेट मोटर साईकिल | यह वही स्थान है और वही मोटर साईकिल जिसका में परिचय करने जा रहा हूँ |
यह "ओम बना" Om Bana का स्थान है ओम बना (ओम सिंह राठौड़) पाली शहर के पास ही स्थित चोटिला Chotila गांव के ठाकुर जोग सिंह जी राठौड़ के पुत्र थे जिनका इसी स्थान पर अपनी इसी बुलेट मोटर साईकिल पर जाते हुए १९८८ में एक दुर्घटना में निधन हो गया था | स्थानीय लोगों के अनुसार इस स्थान पर हर रोज कोई न कोई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाया करता था जिस पेड के पास ओम सिंह राठौड़ Om Singh Rathore की दुर्घटना घटी उसी जगह पता नहीं कैसे कई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाते यह रहस्य ही बना रहता था | कई लोग यहाँ दुर्घटना के शिकार बन अपनी जान गँवा चुके थे |


ओम सिंह राठोड की दुर्घटना में मृत्यु के बाद पुलिस ने अपनी कार्यवाही के तहत उनकी इस मोटर साईकिल को थाने लाकर बंद कर दिया लेकिन दुसरे दिन सुबह ही थाने से मोटर साईकिल गायब देखकर पुलिस कर्मी हैरान थे आखिर तलाश करने पर मोटर साईकिल वही दुर्घटना स्थल पर ही पाई गई, पुलिस कर्मी दुबारा मोटर साईकिल थाने लाये लेकिन हर बार सुबह मोटर साईकिल थाने से रात के समय गायब हो दुर्घटना स्थल पर ही अपने आप पहुँच जाती | आखिर पुलिस कर्मियों व ओम सिंह के पिता ने ओम सिंह की मृत आत्मा की यही इच्छा समझ उस मोटर साईकिल को उसी पेड के पास छाया बना कर रख दिया | इस चमत्कार के बाद रात्रि में वाहन चालको को ओम सिंह अक्सर वाहनों को दुर्घटना से बचाने के उपाय करते व चालकों को रात्रि में दुर्घटना से सावधान करते दिखाई देने लगे | वे उस दुर्घटना संभावित जगह तक पहुँचने वाले वाहन को जबरदस्ती रोक देते या धीरे कर देते ताकि उनकी तरह कोई और वाहन चालक असामयिक मौत का शिकार न बने | और उसके बाद आज तक वहाँ दुबारा कोई दूसरी दुर्घटना नहीं हुयी| 
ओम सिंह राठौड़ के मरने के बाद भी उनकी आत्मा द्वारा इस तरह का नेक काम करते देखे जाने पर वाहन चालको व स्थानीय लोगों में उनके प्रति श्रधा बढ़ती गयी और इसी श्रधा का नतीजा है कि ओम बना के इस स्थान पर हर वक्त उनकी पूजा अर्चना करने वालों की भीड़ लगी रहती है उस राजमार्ग से गुजरने वाला हर वाहन यहाँ रुक कर ओम बना को नमन कर ही आगे बढ़ता है और दूर दूर से लोग उनके स्थान पर आकर उनमे अपनी श्रद्धा प्रकट कर उनसे व उनकी मोटर साईकिल से मन्नत मांगते है | मुझे भी कोई दो साल पहले अहमदबाद से जोधपुर सड़क मार्ग से आते वक्त व कुछ समय बाद एक राष्ट्रिय चैनल पर इस स्थान के बारे प्रसारित एक प्रोग्राम के माध्यम से ये सारी जानकारी मिली और इस बार की जोधपुर यात्रा के दौरान यहाँ दुबारा जाने का मौका मिला तो सोचा क्यों न आपको भी इस निराले स्थान के बारे में अवगत करा दिया जाये |
यह लेख सिर्फ इस जगह की जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है इसे विश्वास या अन्धविश्वास मानना आपके स्वविवेक पर है |


source - gyan darpan

Wednesday, 16 November 2016

महाराजा अनूपसिंह ने औरंगजेब की क्रूरता से बचाई थी देश की बौद्धिक सम्पदा


 


औरंगजेब का शासनकाल हिन्दुओं के लिए संकट का समय था. हालाँकि हिन्दू राजाओं के साथ उसकी संधियाँ और राज्य की सुरक्षा के लिए उन पर निर्भरता उसके साम्प्रदायिक शासन पर एक तरह से अंकुश लगाने में कामयाब रही फिर भी हिन्दु उत्पीड़न हेतु उसके हथकण्डे जारी ही रहे| उसे जहाँ मौका मिलता वह अपनी क्रूर धार्निक मानसिकता परिचय अक्सर करवा ही दिया करता था|उसकी बढ़ी हुई धार्मिक कट्टरता की वजह से दक्षिण भारत में उसके आक्रमण के समय वहां के ब्राह्मणों को सबसे ज्यादा खौफ इस बात का रहता था कि बादशाह की मुस्लिम सेना उनकी महत्त्वपूर्ण धार्मिक पुस्तकें नष्ट कर देगी| इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार "मुसलमानों के हाथों अपनी हस्तलिखित पुस्तकें नष्ट किये जाने की अपेक्षा वे कभी कभी उन्हें नदियों में बहा देना श्रेयस्कर समझते थे| संस्कृत ग्रंथों के इस प्रकार नष्ट किये जाने से हिन्दू संस्कृति के नाश हो जाने की पूरी आशंका थी|"

ऐसी दशा में इस महत्त्वपूर्ण बौद्धिक सामग्री को बचाने के लिए बीकानेर के विद्यानुरागी महाराजा अनूप सिंह जी (1669-1698) ने बहुत बड़ा कार्य किया| महाराजा अनूपसिंह जी औरंगजेब की ओर से दक्षिण के कई अभियानों में शामिल रहे| अपनी दक्षिण तैनाती में महाराजा अनूपसिंह जी ने इस बौद्धिक सामग्री के महत्त्व को देखते हुए इसे बचाने का निर्णय लिया और उन्होंने ब्राह्मणों को प्रचुर धन देकर उनसे पुस्तकें खरीदकर बीकानेर के सुरक्षित दुर्ग स्थित पुस्तक भंडार में भिजवानी शुरू कर दी| बीकानेर के इतिहास में इतिहासकार ओझा जी लिखते है- "यह कार्य कितने महत्त्व का था, यह वही समझ सकता है, जिसे बीकानेर राज्य का सुविशाल पुस्तकालय देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो| यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाराजा अनूपसिंह जी जैसे विद्यारसिक शासकों के उद्योग फलस्वरूप ही उक्त पुस्तकालय में ऐसे ऐसे बहुमूल्य ग्रन्थ अब तक सुरक्षित है, जिनका अन्यत्र मिलना कठिन है| मेवाड़ के महाराणा कुम्भा के बनाये हुए संगीत-ग्रन्थों का पूरा संग्रह केवल बीकानेर के पुस्तक भंडार में ही विद्यमान है| ऐसे ही और भी कई अलभ्य ग्रन्थ वहां विद्यमान है| ई.स.1880 में कलकत्ते के सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र ने इस बृहत् संग्रह की बहुत-सी संस्कृत पुस्तकों की सूची 745 पृष्ठों में छपवाकर कलकत्ते से प्रकाशित की थी| उक्त संग्रह में राजस्थानी भाषा की पुस्तकों का बहुत बड़ा संग्रह है|"

जैसा कि ओझा जी ने पुरातत्ववेत्ता डाक्टर राजेन्द्रलाल द्वारा प्रकाशित उक्त पुस्तकालय की पुस्तक सूची के पृष्ठों की संख्या देखने से ही पता चलता है कि बीकानेर के पुस्तकालय में कितनी किताबें सुरक्षित है| महाराजा अनूपसिंह जी चूँकि संस्कृत के बड़े विद्वान थे, उन्होंने स्वयं संस्कृत में कई ग्रन्थों की रचना की थी ने औरंगजेब के साथ रहते हुए कूटनीति के बल पर बड़े महत्त्व की संस्कृत पुस्तकें व पांडुलिपियों को बचाकर, उनका संरक्षण कर देश की महत्त्वपूर्ण बौद्धिक सामग्री को बचाने की दिशा में शानदार कार्य किया|

सिर्फ बौद्धिक सम्पदा ही नहीं, महाराजा अनूपसिंह जी ने दक्षिण में रहते हुए सर्वधातु की बनी बहुत सी मूर्तियों की भी रक्षा की और उन्हें मुसलमानों के हाथ लगने से पहले बीकानेर पहुंचा दिया, जहाँ के किले के एक स्थान में सब की सब अबतक सुरक्षित है और वह "तैंतीस करोड़ देवताओं के मंदिर" के नाम से प्रसिद्ध है|

Tuesday, 15 November 2016

एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी जो अंग्रेज सिपाहियों की देवी मंदिर में बलि चढ़ाता था

12 अगस्त 1857 को गोरखपुर में अली नगर चौराहा पर अंग्रेज अधिकारी एक व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका कर मृत्युदण्ड की सजा दे रहे थे। लेकिन छः बार फांसी के फंदे पर झुलाने के बाद भी उस व्यक्ति की मृत्यु तो क्या, उसकी सांसों पर तनिक भी असर नहीं पड़ा। छः बार प्रयास करने के बाद भी फांसी की कार्यवाही में सफलता नहीं मिलने व दोषी पर फांसी के फंदे का कोई असर नहीं होने पर अंग्रेज अधिकारी जहाँ हतप्रद थे, वहीं स्थानीय जनता, जो वहां दर्शक के रूप में उपस्थित थी, समझ रही थी कि फांसी के फंदे पर झुलाया जाने वाला व्यक्ति देवी का भक्त है और जब तक देवी माँ नहीं चाहती, इसकी मृत्यु नहीं होगी और अंग्रेज फांसी की कार्यवाही में सफल नहीं हो सकेंगे।

आखिर फांसी के तख्त पर खड़े व्यक्ति ने आँखे बंद की और वह कुछ प्रार्थना करते नजर आया। जैसे ईश्वर या देवी माँ से आखिरी बार कोई प्रार्थना कर रहो हो। उसकी प्रार्थना के बाद अंग्रेज अधिकारीयों ने सातवीं बार उसे फांसी के फंदे पर लटकाया और उस व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ गए। स्थानीय लोगों का मानना है कि बंधू सिंह ने आखिर खुद देवी माँ से प्रार्थना कर उसके प्राण हरने का अनुरोध किया, तब सातवीं बार फंदे पर लटकाने के बाद उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु का दृश्य देख दर्शक के रूप में खड़ी भीड़ के चेहरों पर अचानक दुःख व मायूसी छा गई। भीड़ में छाई मायूसी और भीड़ के हर व्यक्ति के चेहरे पर दुःख और क्रोध के मिश्रित भाव देखकर लग रहा था, कि फांसी पर झूल रहा व्यक्ति उस भीड़ के लिए कोई आम व्यक्ति नहीं, खास व्यक्ति था।


जी हाँ ! वह खास व्यक्ति थे देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध करने वाले, इस देश के महान स्वतंत्रता सेनानी, डूमरी रियासत के जागीरदार ठाकुर बाबू बंधू सिंह। बाबू बंधू सिंह (Babu Bandhu Singh) तरकुलहा देवी के भक्त थे, वे जंगल में रहकर देवी की उपासना किया करते थे।
तरकुलहा देवी का मंदिर गोरखपुर से 20 किलो मीटर दूर तथा चौरी-चौरा से 5 किलो मीटर दूर स्थित है। इस इलाके में कभी घना जंगल हुआ करता था। जंगल से होकर गुर्रा नदी गुजरती थी। इसी जंगल में डूमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह रहा करते थे। नदी के तट पर तरकुल (ताड़) के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर वह अपनी इष्ट देवी की उपासना किया करते थे। आज भी तरकुलहा देवी का यह मंदिर (Tarkulha Devi Temple) हिन्दू भक्तो की धार्मिक आस्था का प्रमुख स्थल हैं।

बाबू बंधू सिंह अंग्रेजी अत्याचारों व अंग्रेजों द्वारा देश को गुलाम बनाकर यहाँ की धन-सम्पदा को लूटने, भारतीय संस्कृति तहस-नहस करने की कहानियां बचपन से ही सुनते आ रहे थे। सो उनके मन में अंग्रेजों के खिलाफ बचपन से ही रोष भरा था। जब वे जंगल में देवी माँ की उपासना करते थे, तब जंगल के रास्तों से उन्होंने कई अंग्रेज सैनिकों को आते जाते देखा। वे मानते थे कि यह धरती उनकी माँ है और उधर से आते जाते अंग्रेज उन्हें ऐसे लगते जैसे वे उनके माँ के सीने को रोंदते हुए गुजर रहे है। इस सोच के चलते उनके मन में उबल रहा रोष क्रोधाग्नि में बदल गया और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध पद्दति, जिसमें वे माहिर थे, से युद्ध का श्री गणेश कर दिया। बाबू बंधू सिंह उधर से गुजरने वाले अंग्रेज सैनिकों पर छिप कर हमला करते व उनके सिर काट कर देवी माँ के मंदिर में बलि चढ़ा देते।


उस जंगल से आने जाने वाला कोई भी अंग्रेज सिपाही, जब अपने गंतव्य तक नहीं पहुंचा, तब अंग्रेज अधिकारीयों ने जंगल में अपने गुम हुये सिपाहियों की खोज शुरू की। अंग्रेजों द्वारा जंगल के चप्पे चप्पे की जाँच की गई तब उन्हें पता चला कि उनके सैनिक बाबू बंधू सिंह के शिकार बन रहे है। तब अंग्रेजों ने जंगल में उन्हें खोजना शुरू किया, लेकिन तब भी बंधू सिंह उन पर हमले कर आसानी से उनके हाथ से निकल जाते। आखिर मुखबिर की गुप्त सूचना के आधार पर एक दिन बाबू बंधू सिंह अंग्रेजी जाल में फंस गए और उन्हें कैद कर फांसी की सजा सुनाई गई। बाबू बंधू सिंह का जन्म डूमरी रियासत के जागीरदार बाबू शिव प्रसाद सिंह के घर 1 मई 1833 को हुआ था। उनके दल हम्मन सिंह, तेज सिंह, फतेह सिंह, जनक सिंह और करिया सिंह नाम के पांच भाई थे। अंग्रेज सैनिकों के सिर काटकर देवी मंदिर में बलि चढाने के जूर्म में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर 12 अगस्त 1857 को गोरखपुर में अली नगर चौराहा पर सार्वजनिक रूप फांसी पर लटका दिया था।

बाबू बंधू सिंह द्वारा फांसी के फंदे पर झूलते हुए देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के बाद स्थानीय जनता ने उनके द्वारा अंग्रेज सैनिकों की बलि देने की परम्परा को प्रतीकात्मक रूप से कायम रखने के लिए आज भी देवी मंदिर में बकरे की बलि देकर जीवित रखा है। बलि के दिन मंदिर प्रांगण में विशाल मेले का आयोजन होता है। तथा बलि दिए बकरे के मांस को मिट्टी के बरतनों में पका कर प्रसाद के रूप में बांटा जाता हैं साथ में बाटी भी दी जाती हैं।

बाबू बंधू सिंह के बलिदान स्थल पर उनकी याद को चिरस्थाई बनाने के लिए कृतज्ञ राष्ट्रवासियों ने एक स्मारक का निर्माण किया है। जहाँ देश की आजादी, अस्मितता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले इस वीर को उनकी जयंती व बलिदान दिवस पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाला ताँता लगता है। 

SOURCE - GYAN DARPAN

Sunday, 13 November 2016

बिना सिर लड़ण वाळा अद्भुत वीर तोगोजी राठौड़

मारवाड़ का इतिहास वीरों की गाथाओं से भरा पड़ा है। वीरता किसी कि बपौती नहीं रही। इतिहास गवाह है कि आम राजपूत से लेकर खास तक ने अप सरजमीं के लिए सर कटा दिया। लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि इतिहास में ज्यादातर उन्हीं वीरों की स्थान मिल पाया जो किसी न किसी रूप में खास थे | आम व्यक्ति की वीरता इतिहास के पन्नों पर बेहद कम आईं। आई भी तो कुछ शब्दों तक सीमित| कुछ भी कहा जाए, लेकिन इन वीरों ने नाम के लिए वीरता नहीं दिखाई। ऐसा ही एक बेहतरीन उदाहरण दिया है मारवाड़ के आम राजपूत तोगाजी राठौड़ Togaji Rathore ने, जिसने शाहजहां को महज यह यकीन दिलाने के लिए अपना सिर कटवा दिया कि राजपूत अप आन-बान के लिए बिना सिर भी वीरता पूर्वक युद्ध लड़ सकता है और उसकी पत्नी सती हो जाती है। आज का राजपूत या और कोई भले ही इसे महज कपोल-कल्पना समझे, लेकिन राजपूतों का यही इतिहास रहा है कि वे सच्चाई के लिए मृत्यु को वरण करना ही अपना धर्म समझते थे |

वर्ष 1656 के आसपास का समय था | दिल्ली पर बादशाह शाहजहां व जोधपुर Jodhpur पर राजा गजसिंह प्रथम Maharaja Gaj Singh 1st का शासन था। एक दिन शाहजहां Shajahan का दरबार लगा हुआ था। सभी अमीर उमराव और खान अपनी अपनी जगह पर विराजित थे| उसी समय शाहजहां जे कहा कि अपने दरबार में खान 60 व उमराव 62 क्यों है? उन्होंने दरबारियों से कहा कि इसका जवाब तत्काल चाहिए | सभा में सन्नाटा पसर गया | सभी एक दूसरे को ताकने लगे। सबने अपना जवाब दिया, लेकिन बादशाह संतुष्ट नहीं हुआ । आखिरकार दक्षिण का सुबेदार मीरखां खड़ा हुआ और उसने कहा कि खानों से दो बातों में उमराव आगे है इस कारण दरबार में उनकी संख्या अधिक है। पहला, सिर कटने के बावजूद युद्ध करना और दूसरा युद्धभूमि में पति के वीरगति को प्राप्त होने पर पत्नी का सति होना। शाहजहां यह जवाब सुनने के बाद कुछ समय के लिए मौन रहा | अगले ही पल उसने कहा कि ये दोनों नजारे वह अपनी आंखों से देखना चाहता है | इसके लिए उसने छह माह का समय निर्धारित किया । साथ ही उसने यह भी आदेश दिया कि दोनों बातें छह माह के भीतर साबित नहीं हुई तो मीरखां का कत्ल करवा दिया जाएगा और उमराव की संख्या कम कर दी जाएगी। इस समय दरबार में मौजूद जोधपुर के महाराजा गजसिंह जी को यह बात अखर गई| उन्होंने मीरखां से इस काम के लिए मदद करने का आश्वासन दिया |

मीरखां चार महीने तक ररजवाड़ों में घूमे, लेकिन ऐसा वीर सामने नहीं आया जो बिना किसी युद्ध महज शाहजहां के सामने सिर कटने के बाद भी लड़े और उसकी पत्नी सति हो। आखिरकार मीरखां जोधपुर महाराजा गजसिंह जी से आ कर मिले । महाराजा ने तत्काल उमरावों की सभा बुलाई| महाराजा ने जब शाहजहां की बात बताई तो सभा में सन्नाटा छा गया । महाराजा की इस बात पर कोई आगे नहीं आया । इस पर महाराजा गजसिंह जी की आंखें लाल हो गई और भुजाएं फड़कजे लगी। उन्होंने गरजना के साथ कहा कि आज मेरे वीरों में कायरता आ गई है। उन्होंने कहा कि आप में से कोई तैयार नहीं है तो यह काम में स्वयं करूँगा। महाराजा इससे आगे कुछ बोलते कि उससे पहले 18 साल का एक जवान उठकर खड़ा हुआ। उसने महाराजा को खम्माघणी करते हुए कहा कि हुकुम मेरे रहते आपकी बारी कैसे आएगी| बोलता-बोलता रुका तो महाराज ने इसका कारण पूछ लिया| उस जवान युवक ने कहा कि अन्नदाता हुकुम सिर कटने के बाद भी लड़ तो लूँगा, लेकिन पीछे सति होने वाली कोई नहीं है अर्थात उसकी शादी नहीं हो रखी है| यह वीरता दिखाने वाला था तोगा राठौड़| महाराजा इस विचार में डूब गए कि लड़ने वाला तो तैयार हो गया, लेकिन सति होने की परीक्षा कौन दे | महाराजा ने सभा में दूसरा बेड़ा घुमाया कि कोई राजपूत इस युवक से अप बेटी का विवाह सति होने के लिए करे| तभी एक भाटी सिरदार इसके लिए राजी हो गए।


भाटी कुल री रीत, आ आजाद सूं आवती ।
करण काज कुल कीत, भटियाणी होवे सती।


महाराजा जे अच्छा मुहूर्त दिखवा कर तोगा राठौड़ का विवाह करवाया । विवाह के बाद तोगाजी ने अपनी पत्नी के डेरे में जाने से इनकार कर दिया | वे बोले कि उनसे तो स्वर्ग में ही मिलाप करूँगा । उधर, मीरखां भी इस वीर जोड़े की वीरता के दिवाने हो गये | उन्होंने तोगा राठौड़ का वंश बढ़ाने की सोच कर शाहजहां से छह माह की मोहलत बढ़वाने का विचार किया। ज्योंहि यह बात नव दुल्हन को पता चली तो उसने अपने पति तोगोजी की सूचना भिजवाई कि जिस उद्देश्य को लेकर दोनों का विवाह हुआ है वह पूरा किये बिना वे ढंग से श्वास भी नहीं ले पाएंगे| इस कारण शीघ्र ही शाहजहाँ के सामने जाने की तैयारी की जाए| महाराजा गजसिंह व मीरखां ने शाहजहाँ को सूचना भिजवा दी|


समाचार मिलते ही शाहजहां जे अपने दो बहादूर जवाजों को तोणोजी से लड़ने के लिए तेयार किया । शाहजहां ने अपने दोनों जवानों को सिखाया कि तोगा व उसके साथियों की पहले दिन भोज दिया जायेगा | जब वे लोग भोजन करने बैठेंगे उस वक्त तोगे का सिर काट देना ताकि वह खड़ा ही नहीं हो सके। उधर, तोगाजी राठौड़ आगरा पहुंच गए। बादशाह ने उन्हें दावत का न्योता भिजवाया। तोगाजी अपने साथियों के साथ किले पहुँच गए। वहां उनका सम्मान किया गया। मान-मनुहारें हुई। बादशाह की रणनीति के तहत एक जवान तोगाजी राठौड़ के ईद-गीर्द चक्कर लगाने लगा । तोगोजी को धोखा होने का संदेह ही गया। उन्होंने अपने पास बैठे एक राजपूत सरदार से कहा कि उन्हें कुछ गड़बड़ लग रही है इस कारण उनके आसपास घूम रहे व्यक्ति को आप संभाल लेना ओर उनका भी सिर काट देना। उसके बाद वह अपना काम कर देगा । दूसरी तरफ, तोगोजी की पत्नी भी सती होने के लिए सजधज कर तैयार हो गई । इतने में दरीखाने से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी कि तोगाजी ने एक व्यक्ति को मार दिया ओर पास में खड़े किसी व्यक्ति ने तोगाजी का सिर धड़ से अलग कर दिया। तोगाजी बिना सिर तलवार लेकर मुस्लिम सेना पर टूट पड़े। तोगाजी के इस करतब पर ढोल-नणाड़े बजने लगे। चारणों ने वीर रस के दूहे शुरू किए। ढोली व ढाढ़ी सोरठिया दूहा बोलने लगे। तोगोजी की तलवार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बादशाह के दरीखाने में हाहाकार मच गया। बादशाह दौड़ते हुए रणक्षेत्र में पहुंचे। दरबार में खड़े राजपूत सिरदारों ने तोगोजी ओर भटियाणी जी की जयकारों से आसमाज गूंजा दिया तोगोजी की वरीता देखकर बादशाह जे महाराजा गजसिंह जी के पास माफीनामा भिजवाया और इस वीर को रोकने की तरकीब पूछी। कहते हैं कि ब्राह्मण से तोगोजी के शरीर पर गुली का छिंटा फिंकवाया तब जाकर तोगोजी की तलवार शांत हुई और धड़ नीचे गिरा। उधर, भटियाणी सोलह श्रृंगार कर तैयार बैठी थी। जमना जदी के किनारे चंदन कि चिता चुनवाई गई। तोगाजी का धड़ व सिर गोदी में लेकर भटियाणीजी राम का नाम लेते हुए चिता मेंप्रवेश कर गई|

साभार : जाहरसिंह जसोल द्वारा रचित राजस्थान री बांता पुस्तक से लेकर घम्माघणी पत्रिका द्वारा हिंदी में अनुवादित

SOURCE - GYAN DARPAN

Friday, 11 November 2016

मुगल-राजपूत वैवाहिक सम्बन्धों का सच

आदि-काल से क्षत्रियों के राजनीतिक शत्रु उनके प्रभुत्व को चुनौती देते आये है। किन्तु क्षत्रिय अपने क्षात्र-धर्म के पालन से उन सभी षड्यंत्रों का मुकाबला सफलतापूर्वक करते रहे है। कभी कश्यप ऋषि और दिति के वंशजो जिन्हें कालांतर के दैत्य या राक्षस नाम दिया गया था, क्षत्रियों से सत्ता हथियाने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से आडम्बर और कुचक्रों को रचते रहे। कुरुक्षेत्र के महाभारत में जब अधिकांश ज्ञानवान क्षत्रियों ने एक साथ वीरगति प्राप्त कर ली, उसके बाद से ही क्षत्रिय इतिहास को केवल कलम के बल पर दूषित कर दिया गया। इतिहास में क्षत्रिय शत्रुओं को महिमामंडित करने का भरसक प्रयास किया गया ताकि क्षत्रिय गौरव को नष्ट किया जा सके। किन्तु जिस प्रकार हीरे के ऊपर लाख धूल डालने पर भी उसकी चमक फीकी नहीं पड़ती, ठीक वैसे ही क्षत्रिय गौरव उस दूषित किये गए इतिहास से भी अपनी चमक बिखेरता रहा। फिर धार्मिक आडम्बरों के जरिये क्षत्रियों को प्रथम स्थान से दुसरे स्थान पर धकेलने का कुचक्र प्रारम्भ हुआ, जिसमंे शत्रओं को आंशिक सफलता भी मिली। क्षत्रियों की राज्य शक्ति को कमजोर करने के लिए क्षत्रिय इतिहास को कलंकित कर क्षत्रियों के गौरव पर चोट करने की दिशा में आमेर नरेशों के मुगलों से विवादित वैवाहिक सम्बन्धों (Amer-Mughal marital relationship) के बारे में इतिहास में भ्रामक बातें लिखकर क्षत्रियों को नीचा दिखाने की कोशिश की गई। इतिहास में असत्य तथ्यों पर आधारित यह प्रकरण आमजन में काफी चर्चित रहा है। 
इन कथित वैवाहिक संबंधों पर आज अकबर और आमेर नरेश भारमल की तथाकथित बेटी हरखा बाई (जिसे फ़िल्मी भांडों ने जोधा बाई नाम दे रखा है) के विवाह की कई स्वयंभू विद्वान आलोचना करते हुए इस कार्य को धर्म-विरुद्ध और निंदनीय बताते नही थकते। उनकी नजर में इस तरह के विवाह हिन्दू जाति के आदर्शों की अवहेलना थी। वहीं कुछ विद्वानों सहित राजपूत समाज के लोगों का मानना है कि भारमल में अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अकबर से अपनी किसी पासवान-पुत्री के साथ विवाह किया था। चूँकि मुसलमान वैवाहिक मान्यता के लिए महिला की जाति नहीं देखते और राजपूत समाज किसी राजपूत द्वारा विजातीय महिला के साथ विवाह को मान्यता नहीं देता। इस दृष्टि से मुसलमान, राजा की विजातीय महिला से उत्पन्न संतान को उसकी संतान मानते है। जबकि राजपूत समाज विजातीय महिला द्वारा उत्पन्न संतान को राजपूत नहीं मानते, ना ही ऐसी संतानों के साथ राजपूत समाज वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते है। अतः ऐसे में विजातीय महिला से उत्पन्न संतान को पिता द्वारा किसी विजातीय के साथ ब्याहना और उसका कन्यादान करना धर्म सम्मत बाध्यता भी बन जाता है। क्योंकि यदि ऐसा नही किया गया जाता तो उस कन्या का जीवन चौपट हो जाता था। वह मात्र दासी या किसी राजपूत राजा की रखैल से ज्यादा अच्छा जीवन नहीं जी सकती थी।

भारमल द्वारा अकबर को ब्याही हरखा बाई का भी जन्म राजपूत समाज व लगभग सभी इतिहासकार इसी तरह किसी पासवान की कोख से मानते है। यही कारण है कि भारमल द्वारा जब अकबर से हरखा का विवाह करवा दिया तो तत्कालीन सभी धर्मगुरुओं द्वारा भारमल के इस कार्य की प्रसंशा की गयी। इसी तरह का एक और उदाहरण आमेर के इतिहास में मिलता है। राजा मानसिंह द्वारा अपनी पोत्री (राजकुमार जगत सिंह की पुत्री) का जहाँगीर के साथ विवाह किया गया। जहाँगीर के साथ मानसिंह ने अपनी जिस कथित पोत्री का विवाह किया, उससे संबंधित कई चौंकाने वाली जानकारियां इतिहास में दर्ज है। जिस पर ज्यादातर इतिहासकारों ने ध्यान ही नहीं दिया कि वह लड़की एक मुस्लिम महिला बेगम मरियम की कोख से जन्मी थी। जिसका विवाह राजपूत समाज में होना असंभव था।

कौन थी मरियम बेगम
इतिहासकार छाजू सिंह के अनुसार ‘‘मरियम बेगम उड़ीसा के अफगान नबाब कुतलू खां की पुत्री थी। सन 1590 में राजा मानसिंह ने उड़ीसा में अफगान सरदारों के विद्रोहों को कुचलने के लिए अभियान चलाया था। मानसिंह ने कुंवर जगत सिंह के नेतृत्व में एक सेना भेजी। जगतसिंह का मुकाबला कुतलू खां की सेना से हुआ। इस युद्ध में कुंवर जगतसिंह अत्यधिक घायल होकर बेहोश हो गए थे। उनकी सेना परास्त हो गई थी। उस लड़की ने जगतसिंह को अपने पिता को न सौंपकर उसे अपने पास गुप्त रूप से रखा और घायल जगतसिंह की सेवा की। कुछ दिन ठीक होने पर उसने जगतसिंह को विष्णुपुर के राजा हमीर को सौंप दिया। कुछ समय बाद कुतलू खां की मृत्यु हो गई। कुतलू खां के पुत्र ने मानसिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। उसकी सेवा से प्रभावित होकर कुंवर जगतसिंह ने उसे अपनी पासवान बना लिया था। प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘दुर्गेशनंदिनी’’ में कुंवर जगतसिंह के युद्ध में घायल होने व मुस्लिम लड़की द्वारा उसकी सेवा करने का विवरण दिया है। लेकिन उसने उस लड़की को रखैल रखने का उल्लेख नहीं किया। कुंवर जगतसिंह द्वारा उस मुस्लिम लड़की बेगम मरियम को रखैल (पासवान) रखने पर मानसिंह कुंवर जगतसिंह से अत्यधिक नाराज हुए और उन्होंने उस मुस्लिम लड़की को महलों में ना प्रवेश करने दिया, ना ही रहने की अनुमति दी। उसके रहने के लिए अलग से महल बनाया। यह महल आमेर के पहाड़ में चरण मंदिर के पीछे हाथियों के ठानों के पास था, जो बेगम मरियम के महल से जाना जाता था। कुंवर जगतसिंह अपने पिता के इस व्यवहार से काफी क्षुब्ध हुये, जिसकी वजह से वह शराब का अधिक सेवन करने लगे। मरियम बेगम ने एक लड़की को जन्म दिया। कुछ समय बाद कुंवर सिंह की बंगाल के किसी युद्ध में मृत्य हो गई। इस शादी पर अपनी पुस्तक ‘‘पांच युवराज’’ में लेखक छाजू सिंह लिखते है ‘‘मरियम बेगम से एक लड़की हुई जिसकी शादी राजा मानसिंह ने जहाँगीर के साथ की। क्योंकि जहाँगीर राजा का कट्टर शत्रु था, इसलिए उसको शक न हो कि वह बेगम मरियम की लड़की है, उसने केसर कँवर (जगतसिंह की पत्नी) के पीहर के हाडाओं से इस विवाह का विरोध करवाया। किसी इतिहासकार ने इस बात का जबाब नहीं दिया कि मानसिंह ने अपने कट्टर शत्रु के साथ अपनी पोती का विवाह क्यों कर दिया? जबकि मानिसंह ने चतुराई से एक तीर से दो शिकार किये- 1. मरियम बेगम की लड़की को एक बड़े मुसलमान घर में भी भेज दिया। 2. जहाँगीर को भी यह सन्देश दे दिया कि अब उसके मन में उसके प्रति कोई शत्रुता नहीं है। जहाँगीर के साथ जगतसिंह की मुस्लिम रखैल की पुत्री के साथ मानसिंह द्वारा शादी करवाने का यह प्रसंग यह समझने के लिए पर्याप्त है कि इतिहास में मुगल-राजपूत वैवाहिक संबंध में इसी तरह की वर्णशंकर संताने होती थी, जिनका राजपूत समाज में वैवाहिक संबंध नहीं किया जा सकता था। इन वर्णशंकर संतानों के विवाहों से राजा राजनैतिक लाभ उठाते थे। जैसा कि छाजू सिंह द्वारा एक तीर से दो शिकार करना लिखा गया है। एक अपनी इन संतानों को जिन्हें राजपूत समाज मान्यता नहीं देता, और उनका जीवन चौपट होना तय था, उनका शासक घरानों में शादी कर भविष्य सुधार दिया जाता, साथ ही अपने राज्य का राजनैतिक हित साधन भी हो जाता था। इस तरह की उच्च स्तर की कूटनीति तत्कालीन क्षत्रिय समाज ने, न केवल समझी बल्कि इसे मान्यता भी दी। यही कारण है कि हल्दीघाटी के प्रसिद्द युद्ध के बाद भी आमेर एवं मेवाड़ के बीच वैवाहिक सम्बन्ध लगातार जारी रहे।
 


SOURCE  - GYAN DARPAN