Saturday, 29 October 2016

राव जयमल जी मेडतिया व पत्ताजी शिसोदिया - डिंगल गीत

बादसाह अकबर ने जब १५६७ में चितोड़ पर आक्रमण किया तो महाराणा उदय सिंह ने चितोड़ खाली कर पहाड़ों की शरण ली व चितोड़ का किला राव जयमल जी मेडतिया व पत्ताजी शिसोदिया को रक्षा के
लिए सुपुर्द कर दिया. दोना योधाओं ने अपने जीते जी चितोड़ पर दुश्मन का कब्जा नही होने दिया. इस सम्बन्ध में एक डिंगल गीत है:-
गीत
चवै राव जैमल चितौड मत चल चलै ,
हेड हूँ अरिदल न दूं हाथै !
ताहरै शीस पग चढ़े नह ताइया ,
माहरै शीस जे खवां माथै !!१!!

भावार्थ : " राव जयमल कहता है - हे चितौड तूं चल विचलित मत हो
दुश्मनों को मै भगा दूंगा -उन के हाथ तुम्हारे तक नही पहुंच ने
दूंगा.जब तक मेरा सिर (खवां ) कंधो पर है तब तक दुश्मन के पांव
तुम्हारे सिर पर नही पड़ेंगे .
धडकै मत चित्रगढ़ जोधहर धीरपै ,
गंज सत्रा दलां कंक गजगाह !
भुजां सूं मुझ जद कमल कमलां मिलै ,
पछे तो कमल पग दे पातसाह !!२!!
भावार्थ :हे चितोड़गढ़ ! तूं धडक मत ! भयभीत मत हो राव जोधा का पौत्र
तुझे धीरज बंधाता है. मै शत्रु दल व इस के हाथियों के समूह ध्वस्त करूंगा. .
मेरा मस्तक जब कटकर महारुद्र के गले में चढ़ जायेगा , उस के बाद ही बादसाह
तेरे मस्तक पर पग रख सकेगा .
दुदै कुल आभरण धुहड़- हर दाखवै ,
धीर मन डरै मत करै धोको !
प्रथि पर माहरो सीस पड़ियाँ पछे ,
जाणजे ताहरै सीस जोखो !!३!!
भावार्थ : राव दूदा के कुल का आभरण, राव धुहड का वंशधर ,जयमल
कहता है -हे चितोड़ -धीरज रख , डर मत और मन में किसी प्रकार का
धोका मत ला . प्रथ्वी पर मेरे मस्तक गिरने पर ही तुम्हारे पर कोई जोखिम
आएगी.
Courtesy--Madan Singh Shekhawat ji

Wednesday, 26 October 2016

सतीत्व की अनूठी मिशाल रानी पद्मिनी और गोरा बादल की वीरता

चित्तौड़ की महारानी पद्मनी 
त्याग,सतीत्व,प्रेरणा,जौहर और वीरता की अनुपम मिशाल ....
समय 13वीं ईस्वी जब चित्तौड़गढ़ लगातार तुर्को के हमले झेल रहा था बाप्पा रावल के वंशजो ने हिंदुस्तान को लगातार तुर्को और मुस्लिम आक्रांताओ को रोके रखा
चित्तोड़ के रावल समर सिंह के बाद उनके बेटे रतन सिंह का अधिकार हुआ उनका विवाह रानी पद्धमणि से हुयी जो जालोर के चौहान वंश से थी (कुछ उन्हें सिंहल द्विव कुछ जैसलमेर के पूंगल की भाटी रानी भी बताते है) उस वक़्त जालोरऔर मेवाड़ की कीर्ति पुरे भारत में थे रतन सिंह जी की पत्नी पद्मनी अत्यंत सुन्दर थी इसी वजह से उनकी ख्याति दूर दूर फ़ैल गयी
इसी वजह दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन ख़िलजी रानी पद्मनी की और आकर्षित होकर रानी को पाने की लालसा से चित्तोर चला आया और रानी पद्मणि को अपनी रानी बनाने की ठानी
अल्लाउद्दीन ख़िलजी की सेना ने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया |
अंत अल्लाउद्दीन ख़िलजी ने थक हार कर एक योजना बनाई जिसमें अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि "हम आपसे संधि करना चाहते है अगर आप एक बार रानी का चेहरा हमें दिखा दे तो हम यहाँ से दूर चले जायेगे"
इतना सुनते ही रत्नसिंह जी गुस्से में आ गए और युद्ध करने की ठानी पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि " सिर्फ मेरी वजह से व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको और लोगो का रक्त बहाना ठीक नहीं रहेगा " रानी ने रतन सिंह जी को समझाया और सायं से काम लेने को कहा रानी नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अल्लाउद्दीन की लाखो की सेना के आगे बहुत छोटी थी | 
तभी रानी पद्मनी ने एक सुझाव दिया और रतन सिंह जी को मनाया
अल्लाउद्दीन अच्छी तरह से जनता था की राजपूतो का हराना इतना आसान भी नही और अगर सेना का पड़ाव उठा दिया और उसके सेनिको का मनोबल टूट जायेगा व बदनामी होगी वो अलग इसने मन ही मन एक योजना बनाई
एक निश्चित समाज चित्तौड़ के द्वार खोले गए अल्लाउद्दीन ख़िलजी का स्वागत हुआ और वादे के मुताबिक रानी पद्मनी को देखने के लिए लाया 
किल्ले के हजारो राजपूतो की भोहे तन गयी अल्लाउद्दीन को सामने देख वो आवेश में आ पर राणा जी और रानी के हुकम की पालना अपनी तलवारो को म्यान में रख कर करते गए राजपूत जनाना में किसी भी पुरुष का जाना निषेद था केवल छटे हुए कुछ सगोत्र राजपुत जनाना के बहार सुरक्षा में थे उसके आगे सेना उन्ही आज्ञा से कोई आर पार नही जा सकता था
रानी पद्मनी का महल के कमरे के पीछे एक बड़ा सरोवर था उसमे एक छोटा महल था वाहा अल्लाउद्दीन को बिठाया गया और पानी के दूसरी तरफ रानी पद्मनी महल मे उनके कमरे एक बड़ा काँच/दर्पण लगाया जिसका प्रतिबिम्ब सरोवर के पानी में गिरता रानी के केवल क्षण भर के लिए देखा वही प्रतिबिम्ब पानी में दूसरी तरह से अल्लाउद्दीन ने देखा
रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अल्लाउद्दीन पागल सा हो गया और उसने अभी रानी को हर हाल में पाने की ठान ली
जब रत्नसिंह अल्लाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अल्लाउद्दीन ने अपने सैनिको को संकेत कर रत्नसिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया |
और रानी के पास सन्देश भिजवाया अगर वो उसके हरम में आती है तो वो रतन सिंह जी को छोड़ देंगे
किल्ले में हाहाहाकार मच गया जिसका डर था वही हुआ अब सब कुछ् रानी पर था
पर रानी ने भी अल्लाउद्दीन ख़िलजी को जवाब उसी की भाषा में देना उचित समझा और दूत से सन्देश भिजवाया की "मै आप के साथ आने को तैयार हु पर मेरे साथ 650 दासिया और होगी और पति के अंतिम दर्शन कर आपके सम्मुख उपस्थित हो जाउंगी"
रानी पद्मनी की शर्त मान ली गयी अल्लाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा 
इधर किल्ले में रानी पद्मनी ने अपने काका गोरा चौहान व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर साढ़े छः सौ डोलियाँ तैयार करवाई 
राजपूतो ने इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया
चित्तोड़ के द्वार खोले गए तुर्क सेना निचिंत थी रानी पद्मनी की डोली जिसमे राजपूत वीर बेठे थे वही आगे पीछे की कमान गोरा बादल संभाले हुए थे तुर्क सेना जश्न मना रही थी बिना लड़े जीत का राजपूत जो भेष बदल कर चल रहे थे अजीब सी शांति थी सबके चेहरे पर अल्लाउद्दीन दूर बेठा देख रहा था और अति उत्साहित था
तभी पद्मनी की डोली रतन सिंह जी के दर्शन के लिए रुकी तबी एका एक सिंह गर्जना हुआ वीर गोरा चौहान ने तलवार निकल दी इधर बादल ने हुंकार भरी और 650 डोलियों में भरे हुए राजपूत और 1300 राजपूत जो कहारों के भेष में थे एक दम से तुर्क/यवन की सेना पर टूट पड़े तुर्क कुछ समझ पाते इससे पहले सर्व प्रथम रंतन सिंह जी को कैद से छुड़ाया और एक योजना के तहत उन्हें जल्दी से किल्ले में ले जाया गया तुर्क सेना में अफरा तफरी मच गयी अल्लाउद्दीन भी बोखला गया बहुत से राजपूत लड़ते रहे पर योजना के तहत हजारो की लाशे बिछाकर पुनः किल्ले में आ गए
इस अप्रत्याक्षित हार से तुर्क सेना मायूस हुयी अल्लाउद्दीन बहुत ही लज्जित हुआ अल्लाउदीन में चित्तोड़ विजय करने की ठानी और अपने दूत भेज कर गुजरात अभियान में लगी और सेना बुला ली अब राजपूतो की हार निश्चित थी
7 माह चित्तोड़ को घेरे रखा 
किल्ले से राजपूतो ने 7 माह तुर्को चित्तोड़ में घुसने नही दिया अंत किल्ले में रसद की कमी हो गयी और राजपूतो ने जौहर और शाका की ठानी
राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया | जौहर के लिए वहा मैदान में रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 23000 राजपूत रमणियों ने विवाह के जोडे में अपने देवी देवताओ का स्मरण कर सतीत्व और धर्म की रक्षा के जौहर चिता में प्रवेश किया | थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया | 
जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी और उसकी सेना भी सोच में पड़ गयी
| महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर 30000 राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे शेरो की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ 
रानी पद्मनी के काका गोरा और उसके भाई बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -
बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ |
सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ||
इस प्रकार सात माह के खुनी संघर्ष के बाद 18 अप्रेल 1303 को विजय के बाद उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके | 
रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी |
संदर्भ---
1-वीर विनोद
2-http://www.gyandarpan.com/2011/03/rani-padmini.html?m=1

Tuesday, 25 October 2016

चित्तोड़ के जौहर और शाके

जौहर
दुर्ग शिरोमणि चित्तोडगढ का नाम इतिहास में स्वर्णिम प्रष्टों पर अंकित केवल इसी कारण है कि वहां पग-पग पर स्वतंत्रता के लिए जीवन की आहुति देने वाले बलिदानी वीरों की आत्मोसर्ग की कहानी कहने वाले रज-कण विद्यमान है | राजस्थान में अपनी आन बान और मातृभूमि के लिए मर मिटने की वीरतापूर्ण गौरवमयी परम्परा रही है और इसी परम्परा को निभाने के लिए राजस्थान की युद्ध परम्परा में जौहर और शाको का अपना विशिष्ठ स्थान रहा है ! चित्तोड़ के दुर्ग में इतिहास प्रसिद्ध तीन जौहर और शाके हुए है |
पहला जौहर और शाका -
दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तोड़ की महारानी पद्मिनी के रूप और सोंदर्य के बारे में सुन उसे पाने की चाहत में विक्रमी संवत १३५९ में चितोड़ पर चढाई की | चित्तोड़ के महाराणा रतन सिंह को जब दिल्ली से खिलजी की सेना के कूच होने की जानकारी मिली तो उन्होंने अपने भाई-बेटों को दुर्ग की रक्षार्थ इकट्ठा किया समस्त मेवाड़ और आप-पास के क्षत्रों में रतन सिंह ने खिलजी का मुकाबला करने की तैयारी की | किले की सुद्रढ़ता और राजपूत सैनिको की वीरता और तत्परता से छह माह तक अलाउद्दीन अपने उदेश्य में सफल नही हो सका और उसके हजारों सैनिक मरे गए अतः उसने युक्ति सोच महाराणा रतन सिंह के पास संधि प्रस्ताव भेजा कि मै मित्रता का इच्छुक हूँ ,महारानी पद्मिनी के रूप की बड़ी तारीफ सुनी है, सो मै तो केवल उनके दर्शन करना चाहता हूँ | कुछ गिने चुने सिपाहियों के साथ एक मित्र के नाते चित्तोड़ के दुर्ग में आना चाहता हूँ इससे मेरी बात भी रह जायेगी और आपकी भी | भोले भाले महाराणा उसकी चाल के झांसे में आ गए | २०० सैनिको के साथ खिलजी दुर्ग में आ गया महाराणा ने अतिथि के नाते खिलजी का स्वागत सत्कार किया और जाते समय खिलजी को किले के प्रथम द्वार तक पहुँचाने आ गए |
धूर्त खिलजी मीठी-मीठी प्रेम भरी बाते करता- करता महारणा को अपने पड़ाव तक ले आया और मौका देख बंदी बना लिया | राजपूत सैनिको ने महाराणा रतन सिंह को छुड़ाने के लिए बड़े प्रयत्न किए लेकिन वे असफल रहे और अलाउद्दीन ने बार-बार यही कहलवाया कि रानी पद्मिनी हमारे पड़ाव में आएगी तभी हम महाराणा रतन सिंह को मुक्त करेंगे अन्यथा नही |अतः रानी पद्मिनी के काका गोरा ने एक युक्ति सोच बादशाह खिलजी को कहलाया कि रानी पद्मिनी इसी शर्त पर आपके पड़ाव में आ सकती है जब पहले उसे महाराणा से मिलने दिया जाए और उसके साथ उसकी दासियों का पुरा काफिला भी आने दिया जाए | जिसे खिलजी ने स्वीकार कर लिया | योजनानुसार रानी पद्मिनी की पालकी में उसकी जगह स्वयम गोरा बैठा और दासियों की जगह पालकियों में सशत्र राजपूत सैनिक बैठे | उन पालकियों को उठाने वाले कहारों की जगह भी वस्त्रों में शस्त्र छुपाये राजपूत योधा ही थे | बादशाह के आदेशानुसार पालकियों को राणा रतन सिंह के शिविर तक बेरोकटोक जाने दिया गया और पालकियां सीधी रतन सिंह के तम्बू के पास पहुँच गई वहां इसी हलचल के बीच राणा रतन सिंह को अश्वारूढ़ कर किले की और रवाना कर दिया गया और बनावटी कहार और पालकियों में बैठे योद्धा पालकियां फैंक खिलजी की सेना पर भूखे शेरों की तरह टूट पड़े अचानक अप्रत्याशित हमले से खिलजी की सेना में भगदड़ मच गई और गोरा अपने प्रमुख साथियों सहित किले में वापस आने में सफल रहा महाराणा रतन सिंह भी किले में पहुच गए | छह माह के लगातार घेरे के चलते दुर्ग में खाद्य सामग्री की भी कमी हो गई थी इससे घिरे हुए राजपूत तंग आ चुके थे अतः जौहर और शाका करने का निर्णय लिया गया | गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया | पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया | थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया | जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया | महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -
बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ |
सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ||
इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद १८ अप्रेल १३०३ को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके | उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे |
दूसरा जौहर और शाका
गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने जनवरी १५३५ में चित्तोड़ पहुंचकर दुर्ग को घेर लिया इससे पहले हमले की ख़बर सुनकर चित्तोड़ की राजमाता कर्मवती ने अपने सभी राजपूत सामंतों को संदेश भिजवा दिया कि- यह तुम्हारी मातृभूमि है इसे मै तुम्हे सौपती हूँ चाहो तो इसे रखो या दुश्मन को सौप दो | इस संदेश से पुरे मेवाड़ में सनसनी फ़ैल गई और सभी राजपूत सामंत मेवाड़ की रक्षार्थ चित्तोड़ दुर्ग में जमा हो गए | रावत बाघ सिंह ने किले की रक्षात्मक मोर्चेबंदी करते हुए स्वयम प्रथम द्वार पर पाडल पोल पर युद्ध के लिए तैनात हुए | मार्च १५३५ में बहादुरशाह के पुर्तगाली तोपचियों ने अंधाधुन गोले दाग कर किले की दीवारों को काफी नुकसान पहुचाया तथा किले निचे सुरंग बना उसमे विस्फोट कर किले की दीवारे उड़ा दी राजपूत सैनिक अपने शोर्यपूर्ण युद्ध के बावजूद तोपखाने के आगे टिक नही पाए और ऐसी स्थिति में जौहर और शाका का निर्णय लिया गया | राजमाता कर्मवती के नेतृत्व में १३००० वीरांगनाओं ने विजय स्तम्भ के सामने लकड़ी के अभाव बारूद के ढेर पर बैठ कर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया | जौहर व्रत संपन्न होने के बाद उसकी प्रज्वलित लपटों की छाया में राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर शाका किया किले के द्वार खोल वे शत्रु सेना पर टूट पड़े इस युद्ध में इतना भयंकर रक्तपात हुआ की रक्त नाला बरसाती नाले की भांति बहने लगा | योद्धाओं की लाशों को पाटकर बहादुर शाह किले में पहुँचा और भयंकर मारकाट और लूटपाट मचाई | चित्तोड़ विजय के बाद बहादुर शाह हुमायूँ से लड़ने रवाना हुआ और मंदसोर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया जिसकी ख़बर मिलते ही ७००० राजपूत सैनिकों ने आक्रमण कर पुनः चित्तोड़ दुर्ग पर कब्जा कर विक्रमादित्य को पुनः गद्दी पर बैठा दिया |
तीसरा जौहर और शाका
अक्टूबर १५६७ में अकबर अपनी विशाल सेना के साथ चित्तोड़ दुर्ग पर हमला किया | शक्ति सिंह द्वारा चित्तोड़ के महाराणा उदय सिंह को हमले की पूर्व सुचना मिल चुकी थी सो युद्ध परिषद् व अन्य सामन्तो की सलाह के बाद महाराणा उदय सिंह ने किले की रक्षा का भार वीर शिरोमणि जयमल मेडतिया को सौप ख़ुद परिवार सहित चित्तोड़ दुर्ग छोड़ कर दुर्गम पहाडों में चले गए | कई महीनों के युद्ध के बाद किले में गोला बारूद और अन्न की कमी हो चली थी और एक रात किले की दीवार का मरम्मत का कार्य देखते वक्त राव जयमल अकबर की बन्दूक से निकली गोली का शिकार हो घायल हो गए और पैर में गोली लगने के कारण उनका चलना फिरना दूभर हो गया अतः दुर्ग में भावी अनिष्ट की आशंका देख जौहर व शाका का निश्चय किया गया दुर्ग में चार स्थानों पर जौहर हुआ |
जौहर क्रिया संपन्न होने के बाद सभी राजपूत योद्धाओं ने गो मुख में स्नान कर मंदिरों में दर्शन कर केसरिया बाना धारण कर किले के द्वार खोल दिए और चल पड़े रणचंडी का आव्हान करने | भयंकर युद्ध और मारकाट के बाद १५ फरवरी १५६८ को दोपहर बाद बादशाह अकबर इन सभी वीरों के वीर गति प्राप्त होने के बाद किले पर कब्जा कर पाया |

source - Gyan darpan

Monday, 24 October 2016

राणा प्रताप और मानसिंह के बीच भोजन विवाद का सच

महाराणा प्रताप और कुंवर मानसिंह के मध्य राणा का मानसिंह के साथ भोजन ना करने के बारे में कई कहानियां इतिहास में प्रचलित है| इन कहानियों के अनुसार जब मानसिंह महाराणा के पास उदयपुर आया तब महाराणा प्रताप ने उनके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हुये आदर किया और मानसिंह के सम्मान हेतु भोज का आयोजन किया, पर महाराणा प्रताप मानसिंह के साथ स्वयं भोजन करने नहीं आये और कुंवर अमरसिंह को मानसिंह के साथ भोजन करने हेतु भेज दिया| कहानियों के अनुसार राणा का इस तरह साथ भोजन ना करना दोनों के बीच वैम्स्य का कारण बना और मानसिंह रुष्ट होकर चला गया| इसी तरह की कहानियों को कुछ ओर आगे बढाते हुये कई लेखकों ने यहाँ तक लिख दिया कि मानसिंह को जबाब मिला कि तुर्कों को बहन-बेटियां ब्याहने वालों के साथ राणाजी भोजन नहीं करते| कई लेखकों ने इस कहानी को ओर आगे बढाया और लिखा कि मानसिंह के चले जाने के बाद राणा ने वह भोजन कुत्तों को खिलाया और उस स्थल की जगह खुदवाकर वहां गंगाजल का छिड़काव कराया|

राजस्थान के पहले इतिहासकार मुंहता नैणसी ने अपनी ख्यात में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा-"लौटता हुआ मानसिंह डूंगरपुर आया तो वहां के रावल सहसमल ने उसका अथिति सत्कार किया| वहां से वह सलूम्बर पहुंचा जहाँ रावत रत्न सिंह के पुत्र रावत खंगार ने मेहमानदारी की| राणाजी उस वक्त गोगुन्दे में थे| रावत खंगार (चुण्डावत) ने कुंवर मानसिंह की सब रीती भांति और रहन-सहन का निरिक्षण कर जाना कि इसकी प्रकृति बंधन रहित व स्वार्थी है, तब रावत ने राणाजी को कहलवाया कि यह मनुष्य मिलने योग्य नहीं है, परन्तु राणा ने उसकी बात न मानी| गोगुन्दे आकर मानसिंह से मिले और भोजन दिया| जीमने के समय विरस हुआ|"

इस तरह राजस्थान के इस प्रसिद्ध और प्रथम इतिहासकार ने इस घटना पर सिर्फ इतना ही लिखा कि भोजन के समय कोई मतभेद हुये| नैणसी ने राणा व मानसिंह के बीच हुये किसी भी तरह के संवाद की चर्चा नहीं की| नैणसी के अनुसार यह घटना गोगुन्दे में घटी जबकि आधुनिक इतिहासकार यह घटना उदयपुर में होने का जिक्र करते है|

इस कहानी में आधुनिक लेखकों ने जब स्थान तक सही नहीं लिखा तो उनके द्वारा लिखी घटना में कितनी सच्चाई होगी समझा जा सकता है| हालाँकि मैं इस बात से इन्कार नहीं करता कि मानसिंह व राणा की इस मुलाकात में कोई विवाद नहीं हुआ हो| यदि विवाद ही नहीं होता तो हल्दीघाटी का युद्ध ही नहीं हुआ होता, मानसिंह के गोगुन्दा प्रवास के दौरान राणा से विवाद हुआ यह सत्य है, पर विवाद किस कारण हुआ वह शोध का विषय है, क्योंकि मानसिंह के साथ राणा द्वारा भोजन ना करने का जो कारण बताते हुए कहानियां घड़ी गई वे सब काल्पनिक है|
यदि प्रोटोकोल या राजपूत संस्कृति के अनुरूप विवाद के इस कारण पर नजर डाली जाय तो यह कारण बचकाना लगेगा और इस तरह की कहानियां अपने आप काल्पनिक साबित हो जायेगी| क्योंकि प्रोटोकोल के अनुसार राजा के साथ राजा, राजकुमार के साथ राजकुमार, प्रधानमंत्री के साथ प्रधानमंत्री, मंत्री के साथ मंत्री भोजन करते है| मानसिंह उस वक्त राजा नहीं, राजकुमार थे, अत: प्रोटोकोल के अनुरूप उसके साथ भोजन राणा प्रताप नहीं, उनके राजकुमार अमरसिंह ही करते| साथ ही हम राजपूत संस्कृति के अनुसार इस घटना पर विचार करें तब भी मानसिंह राणा प्रताप द्वारा उनके साथ भोजन करने की अपेक्षा नहीं कर सकते थे, क्योंकि राजपूत संस्कृति में वैदिक काल से ही बराबरी के आधार पर साथ बैठकर भोजन किये जाने की परम्परा रही है| मानसिंह कुंवर पद पर थे, उनके पिता भगवानदास जीवित थे, ऐसी दशा में उनके साथ राजपूत परम्परा अनुसार कुंवर अमरसिंह को ही भोजन करना था ना कि महाराणा को| हाँ यदि भगवनदास वहां होते तब उनके साथ राणा स्वयं भोजन करते| अत: राजपूत संस्कृति और परम्परा अनुसार मानसिंह राणा के साथ बैठकर भोजन करने की अपेक्षा कैसे कर सकते थे?

मुझे तो उन इतिहासकारों की बुद्धि पर तरस आता है जिन्होंने बिना राजपूत संस्कृति, परम्पराओं व प्रोटोकोल के नियम को जाने इस तरह की काल्पनिक कहानियों पर भरोसा कर अपनी कलम घिसते रहे| मुझे उन क्षत्रिय युवाओं की मानसिकता पर भी तरस आता है जिन्होंने ऐसे इतिहासकारों द्वारा लिखित, अनुमोदित कहानियों को पढ़कर उन पर विश्वास कर लिया, जबकि वे खुद आज भी उस राजपूत संस्कृति और परम्परा का स्वयं प्रत्यक्ष निर्वाह कर रहे है| राजपूत परिवारों में आज भी ठाकुर के साथ ठाकुर, कुंवर के साथ कुंवर साथ बैठकर भोजन करते है| पर जब वे मानसिंह व राणा के मध्य विवाद पर चर्चा करते है तो इन काल्पनिक कहानियों को मान लेते है|

इसी घटना के सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा अपनी पुस्तक "उदयपुर का इतिहास" में "इकबालनामा जहाँगीरी" जिसका कर्ता मौतामिदखां था द्वारा लिखा उदृत करते है-"कुंवर मानसिंह इसी दरबार का तैयार किया हुआ खास बहादुर आदमी है और जो फर्जन्द के ख़िताब से सम्मानित हो चुका है, अजमेर से कई मुसलमान और हिन्दू सरदारों के साथ राणा को पराजित करने के लिए भेजा गया| इसको भेजने में बादशाह का यही अभिप्राय था कि वह राणा की ही जाति का है और उसके बाप दादे हमारे अधीन होने से पहले राणा के अधीन और खिराजगुजर रहे है, इसको भेजने से संभव है कि राणा इसे अपने सामने तुच्छ और अपना अधीनस्थ समझकर लज्जा और अपनी प्रतिष्ठा के ख्याल से लड़ाई में सामने आ जाये और युद्ध में मारा जाय|"

ओझा इस कथन को ठीक मानते हुए लिखते है- क्योंकि आंबेर का राज्य महाराणा कुम्भा ने अपने अधीन किया था, पृथ्वीराज (आमेर का राजा) राणा सांगा के सैन्य में था और भारमल का पुत्र भगवानदास भी पहले महाराणा उदयसिंह की सेवा में रहा था| जब से राजा भारमल ने अकबर की सेवा स्वीकार की, तब से आंबेर वालों ने मेवाड़ की अधीनता छोड़ दी|

राजपूत संस्कृति, परम्परा, प्रोटोकोल आदि की बात के साथ मौतामिदखां और ओझा जी की बात पर भी विचार किया जाये तो यही समझ आयेगा कि मानसिंह के पिता तक जिस मेवाड़ की सेवा-चाकरी में थे, उस मेवाड़ के महाराणा का अपने साथ भोजन करने की अपेक्षा मानसिंह जैसा व्यक्ति कैसे कर सकता था, और महाराणा भी अपने अधीनस्थ कार्य कर चुके किसी व्यक्ति के पुत्र के साथ भोजन करने की कैसे सोच सकते थे| यदि महाराणा का मानसिंह के साथ भोजन नहीं करने के कारण पर भी विचार किया जाए तो सबसे बड़ा कारण यही होगा कि आमेर वाले कभी उनकी नौकरी करते थे अत: वे भले किसी मजबूत राज्य के साथ हों पर उनका कद इतना बड़ा कतई नहीं हो सकता था कि मेवाड़ के महाराणा उनके साथ भोजन करे| साथ ही क्षात्रधर्म का पालन करने वाले महाराणा प्रताप जैसे योद्धा से कोई भी इस तरह की अपेक्षा नहीं कर सकता कि पहले वे किसी के सम्मान में भोज का आयोजन करे और बाद में उस भोज्य सामग्री को कुत्तों को खाने को दे या तालाब में डलवाकर पानी दूषित करे व स्थल को खुदवाकर वहां गंगाजल का छिड़काव करे|

यदि महाराणा के मन में अकबर के साथ संधि करने वाले आमेर के शासकों व मानसिंह के प्रति मन में इतनी ही नफरत होती तो वे ना मानसिंह को आतिथ्य प्रदान करते और ना ही उनके सम्मान में किसी तरह का भोज आयोजित करते| बल्कि वे मानसिंह आदि को मेवाड़ के रास्ते अन्यत्र कहीं आने-जाने हेतु मेवाड़ भूमि के प्रयोग की इजाजत भी नहीं देते|

अत: यह साफ़ है कि महाराणा व मानसिंह के मध्य विवाद का कारण साथ भोजन नहीं करना नहीं है, विवाद का कारण कोई दूसरा ही है, जो शोध का विषय है या फिर मानसिंह द्वारा महाराणा को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए राजी करते समय दी गई दलीलों पर विवाद या महाराणा द्वारा अधीनता की बात स्वीकार नहीं करने पर मानसिंह द्वारा दी गई किसी अप्रत्यक्ष चेतावनी या अधीनता की बात पर महाराणा जैसे स्वाभिमानी योद्धा का उत्तेजित हो जाना, विवाद का कारण हो सकता है| 


SOURCE - GYAN DARPAN

हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के पास नहीं थी धन की कमी : टॉड ने फैलाई भ्रान्ति

 हल्दीघाटी के युद्ध के बाद स्वंतन्त्रता के पुजारी, आन-बान के प्रतीक, दुश्मन के आगे सिर ना झुकाने वाले महाराणा प्रताप मेवाड़ राज्य को मुगलों से आजाद कराने के लिए पहाड़ों में चले गये और वहां से मुग़ल सेना पर छापामार आक्रमण जारी रखा| कर्नल टॉड जैसे कुछ इतिहासकारों ने इस एक युद्ध के बाद ही महाराणा की आर्थिक हालात कमजोर आंक ली और कई मनघडंत कहानियां लिख दी| कर्नल टॉड ने लिखा “शत्रु को रोकने में असमर्थ होने के कारण उस (प्रताप) ने अपने चरित्र के अनुकूल एक प्रस्ताव किया और तदनुसार मेवाड़ एवं रक्त से अपवित्र चितौड़ को छोड़कर सिसोदिया को सिन्धु के तट पर ले जाकर वहां की राजधानी सोगड़ी नगर में अपना लाल झंडा स्थापित करने एवं अपने तथा अपने निर्दय शत्रु (अकबर) के बीच रेगिस्तान छोड़ने का निश्चय किया| वह अपने कुटुम्बियों और मेवाड़ के दृढ और निर्भीक सरदारों आदि के साथ, जो अपमान की अपेक्षा स्वदेश निर्वासन को अधिक पसंद करते थे,अर्वली पर्वत से उतरकर रेगिस्तान की सीमा पर पहुंचा| इतने में एक ऐसी घटना हुई, जिससे उसको अपना विचार बदलकर अपने पूर्वजों की भूमि में रहना पड़ा| यद्यपि मेवाड़ की ख्यातों में असाधारण कठोरता के कामों का उल्लेख मिलता है तो भी वे अद्वितीय राजभक्ति के उदाहरणों से खाली नहीं है| प्रताप के मंत्री भामाशाह ने, जिसके पूर्वज बरसों तक इसी पद पर नियत रहे थे, इतनी सम्पत्ति राणा को भेंट कर दी कि जिससे पच्चीस हजार सेना का 12 वर्ष तक निर्वाह हो सकता था| भामाशाह मेवाड़ के उद्धारक के नाम से प्रसिद्ध है|” (टॉड; राजस्थान; जिल्द.1, पृष्ट.402-3) महाराणा के वित्तमंत्री भामाशाह द्वारा सम्पत्ति भेंट की बात लिखकर टॉड ने यह भ्रम फैला दिया कि हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा की आर्थिक दशा ख़राब हो गई और भामाशाह की भेंट या जैसा कि भामाशाह के दान के बारे में प्रचारित है से महाराणा ने अकबर के साथ युद्ध जारी रखा| कर्नल टॉड की इस कहानी को राजस्थान के सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि कई इतिहासकार मात्र कल्पित कथा समझते है| वैसे भी ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि किसी भी राजा की मात्र एक युद्ध में कभी आर्थिक दशा नहीं बिगड़ती| महाराणा प्रताप के पूर्वजों यथा महाराणा कुंभा, महाराणा सांगा आदि ने मेवाड़ के खजाने में अथाह धन जमा किया था और वह धन महाराणा को यथावत मिला था| हाँ यह बात हम स्वीकार करते है कि महाराणा को स्वयं के शासन में धन संग्रह का मौका मिला नहीं मिला, लेकिन यह तथ्य कपोल कल्पित है और सवर्था झूंठ है क्योंकि नवीन ऐतिहासिक शोधों से यह बात प्रमाणित है कि महाराणा के पास अकूत धन था और धन की कमी के कारण उनके स्वदेश छोड़ने कर अन्यत्र बसने का विचार एकदम निर्मूल है| कर्नल टॉड जैसे इतिहासकारों द्वारा इस तरह की भ्रान्ति फैलाई गई है| 

ओझा जी के अनुसार “प्रतापी महाराणा कुम्भकर्ण और संग्राम सिंह ने दूर-दूर तक विजय कर बड़ी समृद्धि संचित की थी| चितौड़ पर महाराणा विक्रमादित्य के समय गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की दो चढ़ाइयाँ हुई और महाराणा उदयसिंह समय बादशाह अकबर ने आक्रमण किया| बहादुरशाह की पहली चढ़ाई के पूर्व ही राज्य की सारी सम्पत्ति चितौड़ से हटा ली गई थी, जिससे बहादुरशाह और अकबर में से एक को भी चितौड़ विजय करने पर कुछ भी द्रव्य न मिला| यदि कुछ भी हाथ लगता तो अबुल-फज़ल जैसा खुशामदी लेखक तो राई का पहाड़ बनाकर उसका बहुत कुछ वर्णन अवश्य करता, परन्तु फ़ारसी तवारीखों में कहीं भी उसका उल्लेख न होना इस बात का प्रमाण है कि मेवाड़ की संचित सम्पत्ति का कुछ भी अंश उनके हाथ न लगा और वह ज्यों का त्यों सुरक्षित रही|

चितौड़ छूटने के बाद महाराणा उदयसिंह को तो सम्पत्ति एकत्र करने का कभी अवसर नहीं मिला| उसके पीछे महाराणा प्रतापसिंह मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा, जो बहुधा उम्रभर मेवाड़ के विस्तृत पहाड़ी प्रदेश में रहकर अकबर से लड़ता रहा| प्रतापसिंह के पीछे उसका ज्येष्ठ कुंवर अमरसिंह मेवाड़ का स्वामी हुआ| वह भी लगातार अपने राज्य की स्वतंत्रता के लिए अपने पिता प्रताप का अनुकरण कर अकबर और जहाँगीर का मुकाबला करता रहा|
महाराणा प्रतापसिंह और अमरसिंह के समय मुसलमानों से लगातार लड़ाइयाँ होने के कारण चतुर मंत्री भामाशाह राज्य का खजाना सुरक्षित स्थानों पर गुप्त रूप से रखवाया करता था, जिसका ब्यौरा वह अपनी एक बही में रखता था| उन्हीं स्थानों से आवश्यकतानुसार द्रव्य निकालकर वह लड़ाई का खर्च चलाता था| अपने देहांत से पूर्व उसने उपर्युक्त बही अपनी स्त्री को देकर कहा था कि इसमें राज्य के खजाने का ब्यौरेवार विवरण है, इसलिए इसको महाराणा के पास पहुंचा देना|

ऐसी दशा में यह कहना अनुचित न होगा कि चितौड़ का किला मुसलमानों के हस्तगत होने के पीछे तो मेवाड़ के राजाओं को सम्पत्ति एकत्र करने का अवसर ही नहीं मिला था| वि.स. 1671 में महाराणा अमरसिंह ने बादशाह जहाँगीर के साथ संधि की उस समय शहजादा खुर्रम से मुलाक़ात करने पर एक लाल उसको नजर किया, जिसके विषय में जहाँगीर अपनी दिनचर्या में लिखता है- “उसका मूल्य 60000 रूपये और तौल आठ टांक था| वह पहले राठौड़ों के राजा राव मालदेव के पास था| उसके पुत्र चंद्रसेन ने अपनी आपत्ति के समय उसे राणा उदयसिंह को बेच दिया था| वि.स. 1673 में शहजादा खुर्रम दक्षिण को जाता हुआ मार्ग में उदयपुर ठहरा| उस प्रसंग में बादशाह जहाँगीर अपनी दिनचर्या में लिखता है-“राणा ने शहजादे को 5 हाथी, 27 घोड़े और रत्नों तथा रत्नजड़ित जेवरों से भरा एक थाल नजर किया, परन्तु शहजादे ने केवल तीन घोड़े लेकर बाकी सब चीजें वापस कर दी| जहाँगीर के इन कथनों से महाराणा अमरसिंह के समय की मेवाड़ की सम्पत्ति का कुछ अनुमान पाठक कर सकेंगे| यदि महाराणा प्रताप के पास कुछ भी सम्पत्ति नहीं होती, तो उनका पुत्र महाराणा अमरसिंह संधि के समय इतने रत्नआदि कहाँ से प्राप्त कर सकता था|” (उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृष्ठ-400-1)

महाराणा प्रताप के बाद अमरसिंह द्वारा संधि के समय भेंट आदि में सम्पत्ति का प्रयोग और उसके बाद उनके पुत्र महाराणा कर्णसिंह के गद्दी के बैठने के बाद उसके द्वारा उजड़े मेवाड़ को वापस आबाद करने पर काफी धन खर्च किया गया| कर्णसिंह के बाद महाराणा जगतसिंह जो काफी उदार प्रवृति के माने जाते है ने उदयपुर ने लाखों रूपये खर्च कर जगन्नाथ मंदिर बनवाया, उसकी प्राण प्रतिष्ठा पर लाखों खर्च किये| एकलिंगनाथ मंदिर में रत्नों का तुलादान किया| एक करोड़ पचास लाख से ज्यादा रूपये खर्च कर राजसमुद्र तालाब बनवाया और कितने ही तुलादान किये| महाराणा जगतसिंह की दानशीलता इतिहास में प्रसिद्ध है|

ऊपर दिए खर्च के कुछ उदाहरणों से साफ़ जाहिर है कि बेशक महाराणा उदयसिंह, प्रताप और अमरसिंह को सम्पत्ति संचय का मौका ना ना मिला हो पर उनके पास सम्पत्ति की कभी कोई कमी नहीं रही| अतएव यह कहना अप्रसांगिक नहीं होगा कि यह सारी सम्पत्ति महाराणा कुंभा और सांगा की संग्रह की हुई थी जो महाराणा प्रताप के समय उनके मंत्री भामाशाह के उचित प्रबंधन में ज्यों कि त्यों विद्यमान थी| कर्नल टॉड ने सुनी सुनाई बातों के आधार जो कल्पित कहानियां लिख दी उन कहानियों ने महाराणा के पास के धन की कमी और भामाशाह द्वारा दान की भ्रान्ति फैला दी, जबकि हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भी महाराणा के पास सिर्फ जरुरत की ही नहीं बल्कि अकूत सम्पत्ति का संग्रह विद्यमान था| 

source - Gyan  Darpan

Thursday, 20 October 2016

राणा सांगा के चित्र में सांप का रहस्य

आपने इतिहास प्रसिद्ध मेवाड़ के शासक राणा सांगा (Maharana Sangram Singh) का पेड़ ने नीचे सोते हुए एक चित्र अवश्य देखा होगा, इस चित्र में अपना फन उठाये एक सांप भी नजर आता है| चित्र को देखकर हर व्यक्ति के मन में आता होगा कि सांगा के जंगल में पेड़ के नीचे सोते हुए चित्र में सांप का क्या रहस्य है? क्या सांप उस वक्त सोते हुए राणा को काटने के उद्देश्य से आया था और या किसी और प्रयोजन के तहत? तो आइये आज जानते है राणा सांगा से जुडी एक ऐतिहासिक कहानी के माध्यम से चित्र में फन उठाये सांप का रहस्य –

भविष्यवक्ताओं द्वारा सांगा का चितौड़ का स्वामी बनने की भविष्यवाणी के बाद उसके भाइयों ने उस पर प्राणघातक हमला किया और उसे मारने के लिये अग्रसर हुये| सांगा चूँकि अपने भाइयों पर प्रहार नहीं करना चाहते थे अत: वे भाइयों से बचकर घायलावस्था में ही भाग निकले| भाइयों से अपनी जान बचाने को सांगा कई वर्षों तक भेष बदल कर रहे और इधर-उधर दिन काटते रहे, इसी क्रम में वे एक घोड़ा खरीदकर श्रीनगर (अजमेर जिले में) के करमचंद परमार की सेवा में जाकर चाकरी करने लगे| इतिहास में प्रसिद्ध है कि एक दिन करमचंद अपने किसी सैनिक अभियान के बाद जंगल में आराम कर रहा था| उसी वक्त सांगा भी एक पेड़ के नीचे अपना घोड़ा बाँध आराम करने लगा और उसे नींद आ गई| सांगा को सोते हुए कुछ देर में उधर से गुजरते हुए कुछ राजपूतों ने देखा कि सांगा सो रहे है और एक सांप उनपर फन तानकर छाया कर रहा है| यह बात उन राजपूतों ने करमचंद को बताई तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने खुद ने जाकर यह घटना अपनी आँखों से देखी|

इस घटना के बाद करमचंद को सांगा पर सन्देश हुआ कि हो ना हो, यह कोई महापुरुष है या किसी बड़े राज्य का वारिश और उसने गुप्तरूप से रह रहे सांगा से अपना सच्चा परिचय बताने का आग्रह किया| तब सांगा ने उसे बताया कि वह मेवाड़ राणा रायमल के पुत्र है और अपने भाइयों से जान बचाने के लिए गुप्त भेष में दिन काट रहा है|

इसी ऐतिहासिक घटना की कहानी के आधार पर बाद में किसी चित्रकार ने अपनी कल्पना के आधार पर राणा सांगा (Rana Sanga) का पेड़ के नीचे सोते हुए चित्र बनाया जिसमें पेड़ की छाया दूर होने के बाद धुप से सांगा को बचाने हेतु फन उठाया हुआ एक सांप उन पर छाया कर रहा है


source - Gyan Darpan

Saturday, 15 October 2016

महाराज शक्ति सिंह, मेवाड़

यहीं शक्तिसिंह आ के मिला, राम से ज्यों था भरत मिला।
बिछुड़े दिल यदि मिलते हों तो, पगले अब तो मिलने दे।
शक्तिसिंह मेवाड़ के राणा उदयसिंह के द्वितीय पुत्र थे। यह राणा प्रताप से छोटे थे। शक्तिसिंह अपने पिता के समय ही मेवाड़ छोड़कर मुगल दरबार में चले गये थे। शक्तिसिंह के मेवाड़ छोड़ने का कारण अपने बड़े भाई प्रताप से शिकार के मामले में कहासुनी हो गई थी। शक्तिसिंह के अभद्र व्यवहार के कारण उदयसिंह अप्रसन्न हो गए थे। अतः अपने पिता से रुष्ट होकर वह अकबर की सेना में चले गए||

अकबर मेवाड़ पर चढाई करने का इरादा कर धौलुपर में ठहरा हुआ था। जहाँ शक्तिसहि भी उपस्थित थे। एक दिन अकबर ने उनसे कहा कि बड़े-बड़े राजा मेरे अधीन हो चुके हैं, केवल राणा उदयसिंह अब तक मेरे अधीन नहीं हुये, अतः मैं उन पर चढ़ाई करने वाला हूँ, तुम मेरी क्या सहायता करोगे ? यह बात शक्तिसिंह के मन को कचोट गई। उन्होंने सोचा, ‘शाही इरादा तो मेवाड़ पर सेना लेकर चढ़ाई करने का पक्का लगता है। यदि मैं बादशाह के साथ मेवाड़ पहुँचा तो वहाँ लोगों को मन में संदेह होगा कि मैं ही अपने पिता के राज्य पर मुगल बादशाह को चढ़ा लाया हूँ। इससे मेरी बदनामी होगी। अपने चुने हुए साथियों के साथ शाही शिविर छोड़कर वह रातों-रात मेवाड़ आ गये। उन्होंने उदयसिंह को अकबर के चित्तौड़ पर चढ़ाई करने की खबर दी। इस पर सब सरदार दरबार में बुलाए गए। युद्ध से निपटने के लिए मन्त्रणा हुई। उस युद्ध परिषद' में शक्तिसिंह भी शामिल थे। चित्तौड़ में हुए ऐतिहासिक परामर्श के बाद शक्तिसिंह का क्या हुआ था कोई नहीं कह सकता । सम्भव है वह चित्तौड़ के आक्रमण के समय काम आ गये या घायल हो गये| किसी भी ऐतिहासिक ग्रन्थ में इसके बाद उनका नाम नहीं मिलता है| 

चारण कवि गिरधर आशिया द्वारा रचित "सगत रासो' से कुछ गुत्थी सुलझती है। यह रचना वि.सं. 1721 (ई.स. 1664) के आसपास की है। लेकिन इसका दिया हुआ घटना क्रम अभी इतिहासकार स्वीकार नहीं कर पाए हैं। सगत रासो के अनुसार चित्तौड़ पहुँचने पर शक्तिसिंह को दुर्ग रक्षकों ने ऊपर नहीं चढ़ने दिया और वह बिना पिता से मिले ही, डूंगरपुर चले गये। वहाँ से भीण्डर के निकट बेणगढ़ जाकर रहने लगे। यहाँ उन्होंने मिर्जा बहादुर की फौज को परास्त किया।

कनल टॉड ने हल्दीघाटी के रणक्षेत्र से राणा प्रताप के लौटने का वर्णन करते हुए लिखा है। जब राणा प्रताप अपने घायल चेतक पर सवार होकर जा रहा थे, तब दो मुगल सवारों ने उसका पीछा किया। वे राणा के पास पहुँचकर उन पर प्रहार करने वाले थे । इतने में पीछे से आवाज आई - ‘‘आो नीला घोड़ा रा असवार।” प्रताप ने मुड़कर देखा तो पीछे उनका भाई शक्तिसिंह घोड़े पर आता हुआ दिखाई दिया। व्यक्तिगत द्वेष से शक्तिसिंह अकबर की सेवा में चले गए थे। और हल्दीघाटी के युद्ध में वह शाही सेना की तरफ से लड़े था। मुगल सैनिकों द्वारा प्रताप का पीछा करना उन्होंने देख लिया, जिससे उसका भ्रातृप्रेम उमड़ आया। शक्तिसिंह ने दोनों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और प्रताप को अपना घोड़ा दिया। वहीं चेतक घोड़ा मर गया था। जहाँ उसका चबूतरा बना हुआ है।

किसी भी फारसी तवारीख में उल्लेख नहीं है कि शक्तिसिंह ने इस युद्ध में शाही सेना की तरफ से भाग लिया हो और न ही तत्कालीन मेवाड़ के ऐतिहासिक ग्रन्थों में है। हल्दीघाटी युद्ध के बहुत बाद के कुछ ग्रन्थों में इस घटना का जिक्र है। राजप्रशस्ति महाकाव्य जो कि इस युद्ध के लगभग सौ वर्ष बाद का है, उसमें यह घटना है। यह साक्ष्य ठीक नहीं है क्योंकि इतने वर्षों में कई अनिश्चित बातें भी प्रसिद्धि के कारण सही मान ली जाती हैं। शक्तिसिंह के बारे में शाही सेना में शामिल होने व हल्दीघाटी के युद्ध में शामिल होने सम्बन्धी सभी कथाएँ काल्पनिक हैं। शक्तिसिंह अकबर से मानसिंह के मार्फत मिले अवश्य थे, लेकिन वहाँ रुके नहीं वापस लौट आये, हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप का न तो किसी ने पीछा किया और न ही शक्तिसिंह वहाँ थे।

शक्तिसिंह के वंशज शक्तावत सीसोदिया कहलाते हैं। भीण्डर इनका मुख्य ठिकाना है। इनकी उपाधि ‘महाराज' है। ये मेवाड़ में प्रथम श्रेणी के उमराव हैं। मेवाड़ में और भी कई ठिकाने शक्तावतों के हैं। शक्तावतों ने मेवाड़ की सेवा करके नाम कमाया था । हल्दीघाटी के बाद राणा प्रताप के साथ उनके हर सैनिक अभियानों में रहकर मेवाड़ की सेवा की। जहाँगीर के साथ राणा अमरसिंह की लड़ाइयों में ये राणा अमरसिंह के साथ रहे। ऊँटाले के युद्ध में बलू शक्तावत ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। ऊँटाले के किले के दरवाजे पर, जिसके किवाड़ों पर तीक्ष्ण भाले लगे हुए थे, हाथी टक्कर नहीं मार रहा था क्योंकि वह मुकना (बिना दाँत का) था। वीर बलू भालों के सामने खड़ा हो गया और महावत को कहा कि अब टक्कर दिला। वीर बलू इस तरह से वीरतापूर्वक काम आया। ऊँटाले पर अमरसिंह का अधिकार हो गया। विपद काल में मेवाड़ के राणाओं की सेवा के कारण शक्तावतों का यशोगान हुआ है। शक्तावत अपनी शूरवीरता के कारण इतिहास में प्रसिद्ध हैं।
 

हल्दीघाटी का अदम्य योद्धा रामशाह तंवर

रामशाह तंवर
18 जून. 1576 को हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध मचा हुआ था| युद्ध जीतने को जान की बाजी लगी हुई. वीरों की तलवारों के वार से सैनिकों के कटे सिर से खून बहकर हल्दीघाटी रक्त तलैया में तब्दील हो गई| घाटी की माटी का रंग आज हल्दी नहीं लाल नजर आ रहा था| इस युद्ध में एक वृद्ध वीर अपने तीन पुत्रों व अपने निकट वंशी भाइयों के साथ हरावल (अग्रिम पंक्ति) में दुश्मन के छक्के छुड़ाता नजर आ रहा था| युद्ध में जिस तल्लीन भाव से यह योद्धा तलवार चलाते हुए दुश्मन के सिपाहियों के सिर कलम करता आगे बढ़ रहा था, उस समय उस बड़ी उम्र में भी उसकी वीरता, शौर्य और चेहरे पर उभरे भाव देखकर लग रहा था कि यह वृद्ध योद्धा शायद आज मेवाड़ का कोई कर्ज चुकाने को इस आराम करने वाली उम्र में भी भयंकर युद्ध कर रहा है| इस योद्धा को अपूर्व रण कौशल का परिचय देते हुए मुगल सेना के छक्के छुड़ाते देख अकबर के दरबारी लेखक व योद्धा बदायूंनी ने दांतों तले अंगुली दबा ली| बदायूंनी ने देखा वह योद्धा दाहिनी तरफ हाथियों की लड़ाई को बायें छोड़ते हुए मुग़ल सेना के मुख्य भाग में पहुँच गया और वहां मारकाट मचा दी| अल बदायूंनी लिखता है- “ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा मान के पोते रामशाह ने हमेशा राणा की हरावल (अग्रिम पंक्ति) में रहता था, ऐसी वीरता दिखलाई जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है| उसके तेज हमले के कारण हरावल में वाम पार्श्व में मानसिंह के राजपूतों को भागकर दाहिने पार्श्व के सैयदों की शरण लेनी पड़ी जिससे आसफखां को भी भागना पड़ा| यदि इस समय सैयद लोग टिके नहीं रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार हो जाती|"

राजपूती शौर्य और बलिदान का ऐसा दृश्य अपनी आँखों से देख अकबर के एक नवरत्न दरबारी अबुल फजल ने लिखा- "ये दोनों लश्कर लड़ाई के दोस्त और जिन्दगी के दुश्मन थे, जिन्होंने जान तो सस्ती और इज्जत महंगी करदी|"

हल्दीघाटी (Haldighati Battle) के युद्ध में मुग़ल सेना के हृदय में खौफ पैदा कर तहलका मचा देने वाला यह वृद्ध वीर कोई और नहीं ग्वालियर का अंतिम तोमर राजा विक्रमादित्य का पुत्र रामशाह तंवर Ramshah Tomar था| 1526 ई. पानीपत के युद्ध में राजा विक्रमादित्य के मारे जाने के समय रामशाह तंवर Ramsa Tanwar मात्र 10 वर्ष की आयु के थे| पानीपत युद्ध के बाद पूरा परिवार खानाबदोश हो गया और इधर उधर भटकता रहा| युवा रामशाह (Ram Singh Tomar) ने अपना पेतृक़ राज्य राज्य पाने की कई कोशिशें की पर सब नाकामयाब हुई| आखिर 1558 ई. में ग्वालियर पाने का आखिरी प्रयास असफल होने के बाद रामशाह चम्बल के बीहड़ छोड़ वीरों के स्वर्ग व शरणस्थली चितौड़ की ओर चल पड़े|

मेवाड़ की वीरप्रसूता भूमि जो उस वक्त वीरों की शरणस्थली ही नहीं तीर्थस्थली भी थी पर कदम रखते ही रामशाह तंवर का मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने अतिथि परम्परा के अनुकूल स्वागत सत्कार किया. यही नहीं महाराणा उदयसिंह ने अपनी एक राजकुमारी का विवाह रामशाह तंवर के पुत्र शालिवाहन के साथ कर आपसी सम्बन्धों को और प्रगाढ़ता प्रदान की| कर्नल टॉड व वीर विनोद के अनुसार उन्हें मेवाड़ में जागीर भी दी गई थी| इन्हीं सम्बन्धों के चलते रामशाह तंवर मेवाड़ में रहे और वहां मिले सम्मान के बदले मेवाड़ के लिए हरदम अपना सब कुछ बलिदान देने को तत्पर रहते थे|

कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी के युद्ध में रामशाह तोमर, उसके पुत्र व 350 तंवर राजपूतों का मरना लिखा है| टॉड ने लिखा- "तंवरों ने अपने प्राणों से ऋण (मेवाड़ का) चूका दिया|" तोमरों का इतिहास में इस घटना पर लिखा है कि- "गत पचास वर्षों से हृदय में निरंतर प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा का अंतिम प्रकाश-पुंज दिखकर, अनेक शत्रुओं के उष्ण रक्त से रक्तताल को रंजित करते हुए मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के निमित्त धराशायी हुआ विक्रम सुत रामसिंह तोमर|" लेखक द्विवेदी लिखते है- "तोमरों ने राणाओं के प्रश्रय का मूल्य चुका दिया|" भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी व इतिहासकार सज्जन सिंह राणावत एक लेख में लिखते है- "यह तंवर वीर अपने तीन पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह व प्रताप सिंह के साथ आज भी रक्त तलाई (जहाँ महाराणा व अकबर की सेना के मध्य युद्ध हुआ) में लेटा हल्दीघाटी को अमर तीर्थ बना रहा है| इनकी वीरता व कुर्बानी बेमिसाल है, इन चारों बाप-बेटों पर हजार परमवीर चक्र न्योछावर किये जाए तो भी कम है|"

तेजसिंह तरुण अपनी पुस्तक "राजस्थान के सूरमा" में लिखते है- "अपनों के लिए अपने को मरते तो प्राय: सर्वत्र सुना जाता है, लेकिन गैरों के लिए बलिदान होता देखने में कम ही आता है| रामशाह तंवर, जो राजस्थान अथवा मेवाड़ का न राजा था और न ही सामंत, लेकिन विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में इस वीर पुरुष ने जिस कौशल का परिचय देते हुए अपना और वीर पुत्रों का बलिदान दिया वह स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है|"

जाने माने क्षत्रिय चिंतक देवीसिंह, महार ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा- "हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप यदि अनुभवी व वयोवृद्ध योद्धा रामशाह तंवर की सुझाई युद्ध नीति को पूरी तरह अमल में लेते तो हल्दीघाटी के युद्ध के निर्णय कुछ और होता| महार साहब के अनुसार रामशाह तंवर का अनुभव और महाराणा की ऊर्जा का यदि सही समन्वय होता तो आज इतिहास कुछ और होता|"

धन्य है यह भारत भूमि जहाँ रामशाह तंवर Ramshah Tanwar जिन्हें रामसिंह तोमर Ramsingh Tomar, रामसा तोमर Ramsa Tomar आदि नामों से भी जाना जाता रहा है, जैसे वीरों ने जन्म लिया और मातृभूमि के लिए उच्चकोटि के बलिदान देने का उदाहरण पेश कर आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श प्रेरक पैमाना पेश किया|

Friday, 14 October 2016

बलिदानी माता पन्नाधाय

बलिदानी माता पन्नाधाय 


पन्नाधाय स्वामीभक्त महिला ही। वे राजपरिवार री सदस्य नीं ही। मेवाड रे राणा सांगा रे पुत्र उदयसिंह ने बियारी मां री जगां दूध पिलाणे रे कारण पन्ना, धाय मां कहलाई। पन्ना रो पुत्र अर राजकुमार साथे-साथे बडा हुया। उदयसिंह ने पन्ना आपरे बेटे री तरिया पाळियो इण वास्ते बे बियाने आपरो पुत्र ही मानती ही।दासी पुत्र बनवीर चित्तौड रो शासक बणणो चावतो हो बो एक-एक कर राणा रे वंशजा ने मार डालियो। एक रात महाराजा विक्रमादित्य री हत्या कर, बनवीर उदयसिंह ने मारणे रे वास्ते महल री ओर चल पडियो। एक विश्वस्त सेवक सूं पन्ना धाय ने इणरी पेला ही सूचना मिलगी। पन्ना राजवंश रे प्रति आपरे कर्तव्या रे प्रति सजग ही अर उदयसिंह ने बचावणो चावती ही। पन्ना उदयसिंह ने एक बांस री टोकरी में सुवा'र बिने झूठी पत्तला सूं ढक'र एक विश्वास पात्र सेवक रे साथे महला सु बार भेज दियो। बनवीर ने धोखो देणे'रे उद्देश्य सूं आपरे पुत्र ने पन्ना पलंग पर सुला दियो। बनवीर रक्तरंजित तलवार ले'र उदयसिंह रे कमरे में आयो अर उदयसिंह रे बारे में पूछियो। पन्ना उदयसिंह रे पलग री कानी संकेत करियो जिण पर बिणरो पुत्र सोयो हो। बनवीर पन्ना रे पुत्र ने उदयसिंह समझ'र मार दियो।पन्नाधाय आपरी आंखियां रे सामे आपरे बेटे री मौत ने अविचलित रूप सु देखती रई। बनवीर ने खबर ना लागे इण वासतै बा आंसू भी नीं बहा पाई। बनवीर रे जाणे रे बाद पन्ना आपरै मरोडे पुत्र री लाश ने चुम'र राजकुमार ने सुरक्षित स्थान पर ले जावण वास्ते निकळगी। धन्य है स्वामीभक्त वीरांगना पन्ना! जकि आपरे कर्तव्य-पूर्ति में आपरी आंखियां रे तारे पुत्र रो बलिदान दे'र मेवाड राजवंश ने बचायो। 
पन्ना धाय की कहानी


गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने जनवरी १५३५ में चित्तोड़ पहुंचकर दुर्ग को घेर लिया इससे पहले हमले की ख़बर सुनकर चित्तोड़ की राजमाता कर्मवती (Karmvati)ने अपने सभी राजपूत सामंतों को संदेश भिजवा दिया कि- यह तुम्हारी मातृभूमि है इसे मै तुम्हे सौपती हूँ चाहो तो इसे रखो या दुश्मन को सौप दो | इस संदेश से पुरे मेवाड़ में सनसनी फ़ैल गई और सभी राजपूत सामंत मेवाड़ की रक्षार्थ चित्तोड़ दुर्ग में जमा हो गए | रावत बाघ सिंह ने किले की रक्षात्मक मोर्चेबंदी करते हुए स्वयम प्रथम द्वार पर पाडल पोल पर युद्ध के लिए तैनात हुए | मार्च १५३५ में बहादुरशाह के पुर्तगाली तोपचियों ने अंधाधुन गोले दाग कर किले की दीवारों को काफी नुकसान पहुचाया तथा किले निचे सुरंग बना उसमे विस्फोट कर किले की दीवारे उड़ा दी राजपूत सैनिक अपने शोर्यपूर्ण युद्ध के बावजूद तोपखाने के आगे टिक नही पाए और ऐसी स्थिति में जौहर और शाका का निर्णय लिया गया | राजमाता कर्मवती के नेतृत्व में १३००० वीरांगनाओं ने विजय स्तम्भ के सामने लकड़ी के अभाव बारूद के ढेर पर बैठ कर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया | जौहर व्रत संपन्न होने के बाद उसकी प्रज्वलित लपटों की छाया में राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर शाका किया किले के द्वार खोल वे शत्रु सेना पर टूट पड़े इस युद्ध में इतना भयंकर रक्तपात हुआ की रक्त नाला बरसाती नाले की भांति बहने लगा | योद्धाओं की लाशों को पाटकर बहादुर शाह किले में पहुँचा और भयंकर मारकाट और लूटपाट मचाई | चित्तोड़ विजय के बाद बहादुर शाह हुमायूँ से लड़ने रवाना हुआ और मंदसोर के पास मुग़ल सेना से हुए युद्ध में हार गया जिसकी ख़बर मिलते ही ७००० राजपूत सैनिकों ने आक्रमण कर पुनः चित्तोड़ दुर्ग पर कब्जा कर विक्रमादित्य को पुनः गद्दी पर बैठा दिया |

लेकिन चितौड़ लौटने पर विक्रमादित्य ने देखा कि नगर नष्ट हो चूका है और इस विनाशकारी युद्ध के बाद उतना ही विनाशकारी झगड़ा राजपरिवार के बचे सदस्यों के बीच चल रहा है | चितौड़ का असली उत्तराधिकारी , विक्रमादित्य का अनुज उदय सिंह , मात्र छ: वर्ष का था | एक दासी पुत्र बनबीर ने रीजेंट के अधिकार हथिया लिए थे और उसकी नियत और लक्ष्य चितौड़ की राजगद्दी हासिल करना था | उसने विक्रमादित्य की हत्या कर , लक्ष्य के एक मात्र अवरोध चितौड़ के वंशानुगत उत्तराधिकारी बालक उदय की और ध्यान दिया | बालक उदय की धात्री माँ पन्ना (Panna Dhay) ने, उसकी माँ राजमाता कर्मावती के जौहर (सामूहिक आत्म बलिदान ) द्वारा स्वर्गारोहण पर पालन -पोषण का दायित्व संभाला था तथा स्वामी भक्तिव अनुकरणीय लगन से उसकी सुरक्षा की | उसका आवास चितौड़ स्थित कुम्भा महल में एक और ऊपर के भाग में था| पन्ना धाय को जब जानना खाने से निकलती चीखें सुनाई दी तो उसने अनुमान लगा लिया कि रक्त पिपासु बनबीर राजकुमार बालक उदय सिंह की तलाश कर रहा है| उसने तुरंत शिशु उदय सिंह को टोकरी में सुला पत्तियों से ढक कर एक सेवक को उसे सुरक्षित निकालने का दायित्व सोंपा | फिर खाट पर उदय सिंह की जगह अपने पुत्र को लिटा दिया | सत्ता के मद में चूर क्रुद्ध बनबीर ने वहां पहुँचते ही तलवार घोंप कर पन्ना के बालक को उदय समझ मार डाला | नन्ही लाश को बिलखती पन्ना के शिशु राजा और स्वामिभक्त सेवक के पास पहुँचने से पहले ही , चिता पर जला दिया गया |

पन्ना कई सप्ताह देश में शरण के लिए भटकती रही पर दुष्ट बनबीर के खतरे के चलते कई राजकुलों ने जिन्हें पन्ना को आश्रय देना चाहिए था नहीं दिया | वह देशभर में राजद्रोहियों से बचती , कतराती तथा स्वामिभक्त प्रतीत होने वाले प्रजाजनों के सामने अपने को जाहिर करती भटकती रही | आखिर उसे शरण मिली कुम्भलगढ़ में , जहाँ यह जाने बिना कि उसकी भवितव्यता क्या है | उदय सिंह Udai Singh किलेदार का भांजा बनकर बड़ा हुआ | तेरह वर्ष का होते होते मेवाड़ी उमरावों ने उसे अपना राजा स्वीकार कर लिया और उनका राज्याभिषेक कर दिया इस तरह १५४२ में उदय सिंह मेवाड के वैधानिक महाराणा बन गए |
स्वामिभक्ति तथा त्वरित प्रत्युत्पन्नमति , दोनों के लिए श्रधेया नि:स्वार्थी पन्ना धाय जिसने अपने स्वामी की प्राण रक्षा के लिए अपने पुत्र का बलिदान दे दिया को उसी दिन से सिसोदिया कुल वीरांगना वीरांगना के रूप में सम्मान मिल रहा है | इतिहास में पन्ना धाय का नाम स्वामिभक्ति के शिरमोरों में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है | अपने स्वामी की प्राण रक्षा के लिए इस तरह का बलिदान इतिहास में पढने को और कहीं नहीं मिलता |